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सूत्र ३२-३३-३४ । ]
संभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
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अर्थ - ऊपर जो सम्यक्त्व व्रत और शीलोंके अंशको खण्डित करनेवाले अतीचारोंके भेद बताये हैं, उनकी संख्या पैंसठ ( ६५ ) है । इन सभी अतीचार स्थानोंमें गृही त्रतिक श्रावकको प्रमाद रहित होना चाहिये ।
भावार्थ--- इनके रहते हुए सम्यक्त्वादिक पूर्ण नहीं हो सकते, और उनके पूर्ण हुए विना प्रतिकका पूर्णपद या पूर्ण फल प्राप्त नहीं हो सकता । अतएव सागार यतिको यही उचित है कि वह सदा इतनी सावधानी रक्खे, और प्रमादरहित प्रवृत्ति करे, कि जिससे इन ६५ अती चारोंमें से कोई भी अतीचार लगने न पावे' ।
भाष्यम् - अत्राह - उक्तानि व्रतानि व्रतिनञ्च । अथ दानं किमिति : अत्रोच्यते
अर्थ — प्रश्न -- आपने व्रतोंका और उनके पालन करनेवाले व्रतियोंका जो ऊपर स्वरूप बताया है, सो हमारी समझ में आगया है । अब यह कहिये, कि आपने कई स्थानोंपर दान शब्दका जो उल्लेख किया है, वह क्या है ? उसका क्या स्वरूप है ? इसका उत्तर देनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
सूत्र - अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गों दानम् ॥ ३३ ॥
भाष्यम्--: - आत्मपर। नुग्रहार्थे स्वस्य द्रव्यजातस्यान्नपानवस्त्रादेः पात्रेऽतिसर्गो दानम् ॥ अर्थ - अपना और परका अनुग्रह - कल्याण करने के लिये अपनी किसी भी अन्नपान वस्त्र आदि वस्तुका पात्रों के लिये अतिसर्ग - त्याग करना इसको दान कहते हैं ।
भावार्थ - ख्याति लाभ पूजा आदिको सिद्ध करने के लिये नहीं, किन्तु पुण्य-सञ्चय अथवा कर्मोंकी निर्जराके द्वारा आत्म-कल्याण करनेके लिये तथा पात्र के रत्नत्रय - धर्म की रक्षा और पुष्टिके लिये जो दिया जाता है, उसको दान कहते हैं । तथा वह देय-वस्तु योग्य और अपनी ही होनी चाहिये, अयोग्य या परकी वस्तुका दान नहीं हुआ करता ।
दानमें जिन जिन कारणोंसे विशेषता उपस्थित होती है, उनको बतानेके लिये सूत्र करते हैं |
सूत्र--विधिद्रव्यदानृपात्रविशेषात्तद्विशेषः ॥ ३४ ॥
भाष्यम् - विधिविशेषाद् द्रव्यविशेषाद् दातृविशेषात्पात्रविशेषाच्च तस्य दानधर्मस्य विशेषो भवति । तद्विशेषाञ्च फलविशेषः ॥ तत्र विधिविशेषो नाम देशकाल संपच्छ्रद्धासत्कारक्रमाः कल्पनीयत्वमित्येवमादिः ॥ द्रव्यविशेषोऽन्नादीनामेव सारजातिगुणोत्कर्षयोगः ॥ दातृविशेषः प्रतिग्रहतिर्यनसूया, त्यागेऽविषादः अपरिभाविता, दित्सतो ददतो दत्तवतश्च प्रीतियोगः, कुशलाभिसंधिता, दृष्टफलानपेक्षिता, निरुपधत्वमनिदानत्वमिति ॥ पात्रविशेषः सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रतपःसम्पन्नता इति ॥
तत्त्वार्थागमेऽअर्हत्प्रवचन संग्रहे सप्तमोऽध्यायः समाप्तः ॥
१ - संलेखना के ५ भेद जोड़नेसे ७० अतीचार होते हैं । परंतु संलेखनाको व्रतोंमें और इसीलिये यहाँ उसके अती चारोंको भी गिनाया नहीं है, ऐसा मालूम होता है । किन्तु ऐसी हालत में यह कथन संलेखनाके अतीचारोंसे पहले ही होना चाहिये था ।
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