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________________ ३५० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ सप्तमोऽध्यायः पुत्र नौकर आदिसे दान देने को कहना, परन्तु स्वयं न देना, परव्यपदेश नामका अतीचार है । दूसरे दाताओंसे ईर्ष्या करना मात्सर्य नामका अतीचार है । जो दानका समय है, उस समय न देकर उस समयका उल्लंघन करके दानमें प्रवृत्त होना कालातिक्रम नामका अतीचार है इस प्रकार अतिथिसंविभाग व्रत के पाँच अतीचार हैं । 1 पाँच अणुव्रत और सप्तशीलके अतीचारोंको कहने के लिये जो पहले सूत्र द्वारा प्रतिज्ञा की थी, सो पूर्ण हुई । क्योंकि उनका वर्णन हो चुका । किन्तु उन व्रतोंके अन्तमें संलेखनाका भी वर्णन किया था, और यह अतीचारोंका प्रकरण है, अतएव उसके भी अतीचारोंको बतानेके लिये यहाँपर सूत्र कहते हैं: सूत्र - जीवितमरणाशंसा मित्रानुरागसुखानुबंधनिदानकरणानि ॥ ३२ ॥ भाष्यम् – जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुरागः, सुखानुबन्धो, निदानकरणमित्येते मारणान्तिक संलेखनायाः पञ्चातिचारा भवन्ति ॥ अर्थ - मारणान्तिकी संलेखनाके भी पाँच अतीचार हैं-जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबन्ध, और निदानकरण । भावार्थ - अपनी विभूति ऐश्वर्य या सुख-साधनको देखकर अथवा समाधिमरण करानेवाले आचार्य प्रभृति महान् पुरुषोंको अपनी सेवा करते हुए देखकर अधिक कालतक जीनेकी इच्छा रखना, यद्वा पुत्रादिकों को असमर्थ देखकर अभी कुछ दिन और न मरता, तो अच्छा था, ऐसा भाव रखना, आदि जीविताशंसा नामका अतीचार है । इसके प्रतिकूल सामग्री उपस्थित होनेपर - दरिद्रता बीमारी अपकीर्ति या अन्य दुःखके साधन उपस्थित होनेपर जल्दी ही मर जाऊं तो ठीक है, ऐसा विचार करना मरणाशंसा नामका अतीचार है । इष्ट बन्धु बान्धव या स्नेहीजनों में अनुराग होना, अथवा अनुपस्थित होनेपर उनको देखनेकी इच्छा करना, मित्रानुराग नामका अतीचार है । भोगे हुए विषयोंका स्मरण करना, अथवा वर्तमान परिचारक आदिकी सेवामें सुखका अनुभव करना आदि सुखानुबन्ध नामका अतीवार है । आगामी विषयभोग या स्वर्गादिकी सम्पत्ति मुझे प्राप्त हो, इस आशासे उसीके लिये समाधिमरण करना निदान करण नामका अतीवार है । इसप्रकार संलेखनामरणके पाँच अतीचार हैं । इन दोषोंसे रहित होकर उसका पालन करना चाहिये | माध्यम् — तदेतेषु सम्यक्त्वव्रतशीलव्यतिक्रमस्थानेषु पञ्चषष्ठिष्वतिचारस्थानेषु अप्रमादो न्याय्य इति ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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