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________________ ३५२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ सप्तमोऽध्यायः अर्थ—दान धर्ममें विशेषता चार कारणोंसे हुआ करती है-विधिकी विशेषतासे, द्रव्यकी विशेषतासे, दाताकी विशेषतासे, और पात्रकी विशेषतासे । इन विशेषताओंके कारण दानके फलमें भी विशेषता हुआ करती है। यहाँपर विशेषताका अर्थ अधिकता ही नहीं है, किन्तु तारतम्य है । अर्थात् विधि आदिकमें जैसा अन्तर पड़ता है, वैसा ही दानमें और उसके फलमें भी अन्तर पड़ता है-विधि आदिके अनुसार दान और उसका फल न्यूनाधिक हुआ करता है। देश काल सम्पत्ति श्रद्धा और सत्कार, इनके क्रममें जो कुछ भेद हुआ करता है, उसके अनुसार विधिकी विशेषता हुआ करती है। वह अनेक प्रकारकी हो सकती है, जोकि स्वयं कल्पना करके समझी जा सकती है । अन्नपान आदि जो देय-सामग्री है, उसमें सारजातीय तथा अनेक गुणोंके उत्कर्षके सम्बन्धसे द्रव्यमें विशेषता हुआ करती है । दान ग्रहण करने वाले पात्रमें असूयाका न होना-पात्रके दोष ढूँढने या उससे स्पर्धा करनेकी दृष्टिका न होना, दान देनेमें विषाद-खेद-शोक आदिका न होना, तिरस्कारकी बुद्धि न होकर आदर अथवा प्रीतिका भाव होना, जो दान करना चाहता है, या दे रहा है, अथवा जिसने पहले दान किया है, उससे भी प्रीतिका करना, अपने उद्देश्यमें और दान देते समय जो भाव हों, उनमें निर्मलताविशुद्धि रखना, दृष्टफल इस लोकसम्बन्धी-अथवा लौकिक विषयोंकी पूर्तिकी इच्छासे दानमें प्रवृत्त न होना, उपाधियोंसे रहित तथा निदानको छोड़कर दान करना, ये सब दाताकी विशेषताएं हैं। इनमें न्यूनाधिकता होनेसे दाता भी न्यूनाधिक दर्जेका समझा जाता है। सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप इनके पालन करनेके कारण पात्रमें विशेषता हुआ करती है । भावार्थ-पात्रको दान देनेकी जो रीति है, उसको विधि कहते हैं । नवधा भक्ति आदिके द्वारा जो दान दिया जाता है, उसका एकसरीखा सभी मनुष्य पालन नहीं कर सकते । ज्ञानके तारतम्य अथवा देश कालकी परिस्थितिमें अन्तर पड जानेसे उसमें भी अन्तर पडता ही है । यही विधिकी विशेषता है । इसी प्रकार किसी देशमें कोई व्यक्ति कुछ दे सकता है, कहीं कोई उस वस्तुको नहीं दे सकता, अतएव देश कालकी परिस्थितिवश अथवा शक्तिकी अयोग्यता आदिके कारण देय-सामग्रीमें जो अन्तर है, वही द्रव्यकी विशेषता है। दातामें मुख्यतया सात गुणोंका होना बताया है, उनमें न्यूनाधिकताका होना दाताकी विशेषता है, और रत्नत्रय-धर्मके धारण पालन या तपश्चरणादिमें जो अन्तर होता है, उसीसे पात्रकी विशेषता हुआ करती है । ये चारों ही विशेषताएं दान और उसके फलमें अनेक भेदोंको उत्पन्न करनेवाली हैं। इस प्रकार तत्त्वार्थाधिगमभाष्यका सप्तम अध्याय पूर्ण हुआ ॥ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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