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________________ सूत्र २१-२२ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् | ३४३ चार है, चुगली खाना, गुप्त मन्त्रका विस्फोट - भंडाफोड़ कर देना, आदि साकारमंत्रभेद नामका अचार है । भावार्थ--अहिंसाणुव्रतके अतीचारोंके विषयमें जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, उसी प्रकार इन अतीचारोंके विषय में भी अंश भंगका अर्थ घटित कर लेना चाहिये । अर्थात् अन्तरङ्गमें दर्शन मोहका उदय होनेपर यदि अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानावरण कषायमेंसे किसीका भी उदय होनेपर तत्पूर्वक यदि प्रमत्त वचनादिक होंगे, तभी वे अतीचार कहे जा सकते हैं, अन्यथा नहीं । नहीं तो चतुर्थ गुणस्थान से लेकर छट्ठे गुणस्थान तक सभी मनुष्यों के हरएक वचन प्रमत्त वचन कहने होंगे, और क्षीणमोहगुणस्थान तकके जीवोंके समस्त वचन अयथार्थ वचन कहने होंगे, क्योंकि जबतक केवलज्ञान नहीं होता, तबतक - बारहवें गुणस्थान तक के जीवके असत्य वचन माना है। अतिसंधानका अभिप्राय यह है, कि आगमके अर्थका उल्लंघन करना, और फिर उसके लिये दुराग्रह करना, अथवा असम्बद्ध बोलना या हठ करके प्रकरण विरुद्ध बोलना । रहस्याभ्याख्यान और साकारमन्त्रभेद इनमें शारीरिक चेष्टा और मानसिक भावोंकी अपेक्षा भेद है। एकान्तमें किये गये गुह्य कार्यको हास्यादिके वश जाहिर कर देना, रहस्याभ्याख्यान है। आकार-इङ्गित चेष्टा आदिके द्वारा दूसरे के विचारोंको जान करके कि इन्होंने यह सलाह की है, उसको जाहिर कर देना साकारमन्त्रभेद है । जैसे कि एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्रके मन्त्रका विस्फोट कर देता है । तथा स्वरूपकी अपेक्षा भी दोनोंमें अन्तर है, और विषयकी अपेक्षा भी भेद है । अस्तेय - अचौर्याणुत्रतके अतीचार बताते हैं सूत्र -- स्तेनप्रयोगतदाहृतादान विरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहाराः ॥ २२ ॥ भाष्यम् - एते पञ्चास्तेयव्रतस्यातिचारा भवन्ति । तत्र स्तेनेषु हिरण्यादिप्रयोगः । स्तेनैराहृतस्य द्रव्यस्य मुधक्रयेण वा ग्रहणं तदाहृतादानम् । विरुद्धराज्यातिक्रमश्चास्तेयव्रतस्यातिचारः । विरुद्धे हि राज्ये सर्वमेव स्तेययुक्तमादानं भवति । हीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहारः कूटतुला कूटमानवञ्चनादियुक्तः क्रयो विक्रयो वृद्धिप्रयोगश्च । प्रतिरूपकव्यवहारो नाम सुवर्णरूप्यादीनां द्रव्याणां प्रतिरूपकक्रिया व्याजीकरणानि चेत्येते पञ्चास्तेयत्रतस्यातिचारा भवन्ति ॥ अर्थ — स्तेनप्रयोग आदि जो इस सूत्र में गिनाये हैं, वे पाँच अस्तेयाणुव्रत के अतीचार हैं । इनका स्वरूप क्रमसे इस प्रकार है । " १ क्योंकि “ रहसिभवं रहस्यं तस्याभ्याख्यानम् रहस्याभ्याख्यानमिति ऐसी निरुक्ति है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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