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________________ ३४० रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ सप्तमोऽध्यायः नोंमें बताये हुए पदार्थोंकी तरफ से सर्वथा हटकर जिनोक्त पदार्थोंकीं तरफ ही दृढ़रूपसे स्थिर नहीं हुई है, ऐसे सम्यग्दृष्टि पुरुषको भी अत् भगवान के उपदिष्ट अत्यन्त सुक्ष्म और ऐसे अतीन्द्रिय पदार्थोंके विषयमें कि जिनको केवल आगमके द्वारा ही जाना जा सकता है, इस तरहका संदेह हो जाया करता है, कि ऐसा हो सकता है या नहीं, जो जिनभगवानने कहा है, वही ठीक है, अथवा अमुक प्रकार से जो अमुक दर्शनकारने कहा है सो ठीक है, इत्यादि । इस तरहके संदिग्ध विचारको ही शंका कहते हैं । यह सम्यग्दर्शनका पहला अतीचार है । इस लोकसम्बन्धी–स्त्री पुत्र धन धान्यादि और परलोकसम्बन्धी स्वर्गादि विभूति स्वरूप विषयोंकी अभिलाषा करनेको काङ्क्षा कहते हैं । यह भी सम्यग्दर्शनका अतीचार है । क्योंकि काङ्क्षा रखनेवाला मनुष्य गुण दोष के विचार से रहित हो जाया करता है, और विचारशून्य जीव समय-आगम-शासनका अतिक्रम उल्लंघन कर दिया करता है । यह भी ठीक है, और यह भी ठीक है, अर्थात् जिनभगवान्ने जो पदार्थोंका स्वरूप कहा है, वह भी यथार्थ है, और अन्य दर्शनकारोंने जो कहा है, वह भी यथार्थ है, इस तरहका जो मति-बुद्धि विप्लव-विभ्रम हो जाया करता है, उसको विचिकित्सा कहते हैं । इस तरहके भ्रान्त विचारोंका होना भी सम्यग्दर्शनका अतीचार है । अर्हद् भगवानके शासनसे भिन्न जितने भी दर्शन हैं, वे सब अन्यदृष्टि शब्दसे समझने चाहिये । अन्यदृष्टि दो प्रकारकी हुआ करती है । - अभिगृहीत और अनभिगृहीत । इसके धारक जीव सामान्यतया चार प्रकारके हैं । - क्रियावादी अक्रियावादी अज्ञानी और वैनयिक । इनकी प्रशंसा करना अन्यदृष्टिप्रशंसा नामका अतीचार है, और इनका संस्तव करना अन्य, 'दृष्टिसंस्तव नामका अतीचार है । प्रश्न - प्रशंसा और संस्तव इनमें क्या विशेषता है ? उत्तर - अन्यदृष्टियों के ज्ञान दर्शन गुणमें भावसे- केवल मनसे प्रकर्षताका उद्भावन करना इसको प्रशंसा कहते हैं । तथा सोपध-अभिगृहीत और निरुपध - अनभिगृहीत सद्भुत अथवा असद्भूत गुणोंकी वचनके द्वारा प्रकर्षताका उद्भावन करना, इसको संस्तव कहते हैं । भावार्थ — अंशतः भङ्ग हो जानेको अतीचार कहते हैं । सम्यग्दर्शन जो तत्त्वार्थ के श्रद्धानरूप है, उसका यदि प्रतिपक्षी कर्मका अन्तरङ्गमें उदय होनेपर अंशतः भंग हो जाय, तो उसको अतीचार समझना चाहिये । चार अनन्तानुबन्धी कषाय और दर्शनमोहकी एक, मिथ्यात्व अथवा मिथ्यात्व मिश्र और सम्यक्त्व इस तरह तीन मिलाकर कुल पाँच अथवा सात १–दिगम्बर-सम्प्रदायमें विचिकित्साका अर्थ ग्लानि किया है । साधुओं के बाह्य शरीरको धुलिधूसरित अथवा रोगादिसे ग्रस्त देखकर उनके आत्मिक गुणोंमें ग्लानि करना, इसको विचिकित्सा नामका अतीचार कहते हैं । २ -- अतिक्रमो मानसशुद्धिहानिर्व्यतिक्रमो यो विषयाभिलाषः । देशस्य भंगोह्यतिचार उक्तः भङ्गोह्यनाचार इह व्रतानाम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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