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________________ सूत्र १७-१८ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । दिव्रत आदिके साथ इसको भी पहले ही सूत्रमें यदि गिना देते, तो भी काम चल सकता था, परन्तु वैसा न करके पृथक् सूत्र करनेका आशय यह है, कि इसकी विशेषता प्रकट हो, और यह भी मालुम होजाय, कि समाधिमरण केवल अगारी - श्रावक ही नहीं करते, किन्तु अनगार भी किया करते हैं । तथा आगार भी सभी करते हों यह बात भी नहीं है । किसीके कचित् कदाचित् होता है, और किसीके कदाचित् नहीं भी होता । भाष्यम् - - एतानि दिव्रतादीनि शीलानि भवन्ति । निःशल्यो व्रतीति वचनादुक्तं भवतिव्रती नियतं सम्यग्दृष्टिरिति ॥ अर्थ — ऊपर के सूत्र में दिग्व्रत आदि जो बताये हैं, उनको शील कहते हैं । उन सातोंकी शील - सप्तशील ऐसी संज्ञा है । ३३९ ऊपर यह बात भी बता चुके हैं, कि जो निःशल्य होता है, वही व्रती माना जाता है । इस कथनसे यह भी स्पष्ट हो जाता है, कि जो व्रती होता है, वह नियमसे सम्यग्दृष्टि ही होता है । उपर्युक्त व्रतका श्रावकको अतीचार रहित पालन करना चाहिये । इसके लिये यह जानकी आवश्यकता है, कि सम्यग्दर्शनसे लेकर संलेखना तकके कौन कौनसे अतीचार हैं । अतएव भाष्यकार कहते हैं, कि भाष्यम्--तत्र ।- अर्थ- - उक्त सम्यग्दर्शन तथा व्रतोंमेंसे सूत्र -- शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसा संस्तवाः सम्यदृष्टेरीचाराः ॥ १८ ॥ भाष्यम् -- शङ्का काङ्क्षा विचिकित्सा अन्यदृष्टिप्रशंसा संस्तवः इत्येते पञ्च सम्यग्दृष्टेरतीचारा भवन्ति । अतिचारो व्यतिक्रमः स्खलनमित्यनर्थान्तरम् । अधिगतजीवाजीवादितत्वस्यापि भगवतः शासनं भावतोऽभिप्रपन्नस्यासंहार्यमतेः सम्यग्दृष्टेरहेत्प्रोक्तेषु अत्यन्तसूक्ष्मेष्वतीन्द्रियेषु केवलागमग्राह्येष्वर्थेषु यः संदेहो भवति एवं स्यादेवं न स्यादिति सा शंका | ऐहलौकिकपारलौकिकेषु विषयेष्वाशंसा काङ्क्षा । सोऽतिचारः सम्यग्दृष्टेः । कुतः ? काि ह्यविचारितगुणदोषः समयमतिक्रामति ॥ विचिकित्सा नाम इदमप्यस्तीदमपीति मतिविप्लुतिः । अन्यदृष्टिरित्यर्हच्छासनव्यतिरिक्तां दृष्टिमाह । सा द्विविधा | अभिगृहीता अनभिगृहीता च । तयुक्तानां क्रियावादिनामक्रियावादिनामज्ञानिकानां वैनयिकानां च प्रशंसासंस्तवौ सम्यग्रहटेरतिचार इति । अत्राह प्रशंसासंस्तवयोः कः प्रतिविशेष इति । अत्रोच्यते- ज्ञानदर्शनगुणप्रकर्षोद्भावनं भावतः प्रशंसा । संस्तवस्तु सोपधं निरुपधं भूताभूतगुणवचनमिति ॥ अर्थ - शंका, काङ्क्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा, और अन्यदृष्टिसंस्तव ये पाँच सम्यग्दर्शन के अतीचार हैं । अतीचार व्यतिक्रम और स्खलन ये शब्द एक ही अर्थके वाचक हैं । जो भगवान अरहंतदेवके शासनको भाव- अन्तरङ्गसे स्वीकार करनेवाला है, और उनके उपदिष्ट जीव अजीव आदि तत्त्वोंके स्वरूपका जिसको ज्ञान है, किन्तु जिसकी मति अन्य दर्श Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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