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________________ सूत्र १०-११-१२-१३ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । अर्थ-प्रश्न—जिसका अन्तमें पाठ किया है, उस परिग्रहका क्या स्वरूप है ? इसका उत्तर सूत्र द्वारा देते हैं। सूत्र-मूर्छा परिग्रहः ॥ १२ ॥ ___ भाष्यम्-चेतनावत्स्वचेतनेषु च बाह्याभ्यन्तरेषु द्रव्येषु मूर्छा परिग्रहः । इच्छा प्रार्थना कामोभिलाषः काङ्क्षा गार्च मूर्छत्यनर्थान्तरम् ॥ अर्थ-चेतनायुक्त अथवा चेतनरहित जो बाह्य तथा अभ्यन्तर द्रव्य-पदार्थ हैं, उनके विषयमें जो मूर्छाभाव होता है, उसको परिग्रह कहते हैं । इच्छा प्रार्थना काम अभिलाषा काङ्क्षा गृद्धि और मूर्छा ये सब शब्द एक ही अर्थके वाचक हैं। भावार्थ-यहाँपर प्रमत्तयोग शब्दका सम्बन्ध रहनेके कारण जो रत्नत्रयके साधन हैं, उनके ग्रहण रक्षण आदिमें परिग्रहता नहीं मानी जाती । जो उसके साधन नहीं हैं, उन वस्तुओंके ग्रहण रक्षण करनेमें मूर्छा-परिग्रह समझना चाहिये । वे वस्तु चाहे सचेतन हों, चाहे अचेतन । ___स्त्री पुत्र दासी दास ग्राम गृह क्षेत्र धन धान्यादि बाह्य परिग्रह हैं, और मिथ्यात्व वेद कषाय आदि अन्तरङ्ग परिग्रह हैं । बाह्य पदार्थ अन्तरङ्ग मूर्छाके कारण हैं, इसलिये उनको भी परिग्रह ही कहा है। मछौं शब्द लोकमें वेहोशीके लिये प्रसिद्ध है, अतएव उसका विशिष्ट अर्थ बतानेके लिये ही पर्यायवाचक शब्दोंका उल्लेख किया है, जिससे मालूम होता है, कि इच्छा अथवा कामना आदिको मूर्छा कहते हैं । भाष्यम्-अत्राह-गृह्णीमस्तावद् व्रतानि । अथ व्रती क इति ? अत्रोच्यते__ अर्थ-प्रश्न-आपने व्रतोंका जो स्वरूप बताया, वह हमारी समझमें आ गया-उसको हम ग्रहण करते हैं। अब यह कहिये, कि व्रती किसको कहते हैं ? व्रतोंके धारण करने मात्रसे ही व्रती कहा जा सकता है, या और कोई विशेषता है ? इसका उत्तर देनेके लिये सूत्र कहते हैं सूत्र-निःशल्यो व्रती ॥ १३ ॥ भाष्यम्-मायानिदानमिथ्यादर्शनशल्यौस्त्रिभिर्वियुक्तो निःशल्यो व्रती भवति व्रतान्यस्य सन्तीति व्रती । तदेवं निःशल्यो व्रतवान् व्रती भवतीति॥ अर्थ-मायाशल्य निदानशल्य और मिथ्यादर्शनशल्य इन तीनोंसे जो रहित है उसको निःशल्य कहते हैं। जो निःशल्य है, वही व्रती है । व्रती शब्दका अर्थ है, कि जो व्रतोंको धारण करता हो। इस लिये अर्थ यही समझना चाहिये कि जो निःशल्य है, और व्रतोंको भी धारण करनेवाला है, वही व्रती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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