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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ सप्तमोऽध्यायः
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भावार्थ - शल्य शब्दका अर्थ कण्टक होता है । जो कॉंटे की तरहसे हृदय में चुभनेवाला हो, उसको भी शल्य कहते हैं । माया निदान और मिथ्यात्व ये तीनों शल्य हैं । क्योंकि शल्य - काँटेकी तरहसे सदा हृदयमें खटकते रहते हैं । अतएव जबतक इनका त्याग नहीं किया जाय, तबतक व्रतोंके धारण कर लेनेपर भी व्रती नहीं माना जा सकता । जो माया निदान या मिथ्यात्वपूर्वक व्रतोंको धारण करता है, वह वास्तवमें व्रती नहीं है । इसी प्रकार केवल शल्यका परित्याग कर देने मात्र से भी व्रती तबतक नहीं हो सका, जबतक कि व्रतोंको धारण न किया जाय । अतएव जो शल्य रहित होकर व्रतोंको पालता है, वही व्रती है, ऐसा समझना चाहिये ।
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व्रतीके कितने भेद हैं, सो बतानेके लिये सूत्र कहते हैं:
सूत्र – अगार्यनगारश्च ॥ १४ ॥
भाष्यम् - स एष व्रती द्विविधो भवति । अगारी अनगारश्च । श्रावकः अमणश्चेत्यर्थः ॥ अर्थ- - ऊपर जिसका लक्षण बताया गया है, उस व्रतीके दो भेद हैं- एक अगोरी दूसरा अनगर । इन्हींको क्रमसे श्रावक और श्रमण भी कहते हैं । अर्थात् अगारी और श्रावक एक बात है, तथा अनगार और श्रमण एक बात है ।
भाष्यम् - अत्राह - कोऽनयोः प्रतिविशेष इति ? अत्रोच्यते ।: --
अर्थ -- प्रश्न- आपने व्रतीके जो ये दो भेद बताये - अगारी और अनगार इनमें अन्तरविशेषता किस बात की है ? इसका उत्तर देनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं:
सूत्र - अणुव्रतोऽगारी ॥ १५ ॥
भाष्यम् - अणून्यस्य व्रतानीत्यणुव्रतः । तदेवमणुव्रतधरः श्रावकोऽगारवती भवति ॥ अर्थ -- जिसके उपर्युक्त व्रत अणुरूपमें थोड़े प्रमाणमें हों, उसको अणुव्रत या अणुव्रती कहते हैं । इस प्रकार जो अणु-लघु प्रमाणवाले व्रतोंको धारण करनेवाला है, उस श्रावकको अगारी व्रती समझना चाहिये ।
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भावार्थ -- उपर्युक्त अहिंसादिक व्रत दो प्रकारसे पाले जाते हैं । एक तो पूर्णरूपसे - एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवमात्रकी हिंसाका मन वचन काय के सम्पूर्ण भंगों से परित्याग करना आदि, और दूसरा एक देशरूपसे । अर्थात् प्रयोजनीभूत हिंसा आदिके सिवाय सम्पर्णका परित्याग करना । जो हिंसा आदिका एकदेश रूपसे - स्थूल हिंसा आदिका त्याग करनेवाला है, उसको श्रावक अथवा अगारी व्रती, अणुव्रती, देशसंयत, देशयति आदि कहते हैं ।
भाष्यम् - - किं चान्यत् । --
अर्थ - - अगारी और अनगार में एक विशेषता बताई । इसके सिवाय उसमें और भी विशेषता है । उसको बतानेके लिये सत्र कहते हैं:
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१ - अगारं गृहम् तदस्ति यस्यासौ अगारी गृहीत्यर्थः । २-न अगारम् गृहम् यस्य सः - गृहविरतो यतिरित्यर्थः ।
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