SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 353
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ सप्तमोऽध्यायः जो विपरीत हैं - अज्ञान अथवा कषायके कारण जिनकी प्रवृत्ति वास्तविक हितके प्राप्त और आहतके परिहार करनेमें विमुख है, और इसी लिये जो नाना प्रकार के दुःखोंसे पीड़ित हो रहे हैं, ऐसे दनि कृपण अनाथ बाल और अत्यंत मुग्ध वृद्धों के विषयमें अथवा किसी भी तरह के क्लेशसे जो संक्लिष्ट हैं, उन प्राणिमात्रोंपर दयाभाव रखना चाहिये । अपने मनमें निरन्तर इस प्रकारका विचार करना चाहिये, कि ये प्राणी कब और किस तरहसे दुःखसे उन्मुक्त हों छूट जावें । जो प्रतिक्षण इस प्रकारकी भावना रखता है, वह जीव शक्त्यनुसार हितोपदेशादिके द्वारा उनका अनुग्रह भी करता है । ३२८ जो अविनेय हैं, उनके विषय में माध्यस्थ्यभावना रखनी चाहिये । माध्यस्थ्य औदासीन्य और उपेक्षा ये सब शब्द पर्यायवाचक हैं - एक ही अर्थको सूचित करते हैं । जो मृत्पिण्डके समान अथवा काष्ठ भीति आदिके समान जड़ - अज्ञानी हैं, जो वस्तुस्वरूपके ग्रहण करने - समझने में और धारण करनेमें तथा विवेक शक्तिके द्वारा हिताहितका विवेचन करने में अथवा विशिष्ट बुद्धि प्रतिभा और ऊहापोह - तर्कशक्ति से काम लेनेमें असमर्थ हैं, महान् मोहसे आक्रान्त हैं - दृढ़ विपरीत श्रद्धानी हैं, जिन्होंने द्वेषादिके वश होकर वस्तुस्वरूपको अन्यथा ग्रहण कर रक्खा है, अथवा जिनको दुष्ट भावोंका ग्रहण कराया गया है, वे सब अविनेय समझने चाहिये । ऐसे जीवों के विषय में माध्यस्थ्यभावना होनी चाहिये | उनसे न राग करना चाहिये और न द्वेष | क्योंकि यदि ऐसे व्यक्तियोंको हितोपदेश भी दिया जाय, तो भी वक्ताका वह श्रम सफल नहीं हो सकता । इस प्रकार सत्त्व गुणाधिक क्लिश्यमान और अविनेय प्राणियोंमें क्रमसे मैत्री प्रमोद कारुण्य और माध्यस्थ्यभावना रखनेसे उपर्युक्त अहिंसादिक व्रत स्थिर रहते हैं, और रागद्वेष कम होकर वीतरागता तथा हितोपदेशकता की मात्रा बढ़ती है । भाष्यम् - किं चान्यत् । अर्थ — ऊपर अहिंसादिक व्रतोंको स्थिर रखने के लिये जो भावनाएं बताई हैं, उनके सिवाय और भी भावनाएं हैं, इस बातको बतानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं । — सूत्र - जगत्कायस्वभावौ च संवेगवैराग्यार्थम् ॥ ७ ॥ भाष्यम् – जगत्कायस्वभावौ च भावयेत् संवेगवैराग्यार्थम् । तत्र जगत्स्वभावो द्रव्या• णामनाद्यादिमत्परिणामयुक्ताः प्रादुर्भावतिरोभावस्थित्यन्यतानुग्रहविनाशाः । कायस्वभावोऽनित्यता दुःखहेतुत्वं निःसारताऽशुचित्वमिति । एवं ह्यस्य भावयतः संवेगो वैराग्यं च भवतेि । तंत्र संवेगो नाम संसार भीरुत्वमारम्भपरिग्रहेषु दोषदर्शनादरतिर्धर्मे बहुमानो धार्मिकेषु च धर्मश्रवणे धार्मिकदर्शने च मनःप्रसाद उत्तरोत्तरगुणप्रतिपत्तौ च श्रद्धेति । वैराग्यं नाम शरीर भोग संसारनिर्वेदोपशान्तस्य बाह्याभ्यन्तरेषूपाधिष्वनभिष्वङ्ग इति ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy