SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 352
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्र ६ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ३२७ अर्थ - सत्त्वगुणाधिक क्लिश्यमान और अविनेय इन चार प्रकारके जीवोंके विषय में क्रमसे चार प्रकारकी भावना करनी चाहिये । अर्थात् सत्वे -- प्राणिमात्र के विषय में मैत्रीभावना, गुणाधिकोंके विषय में प्रमोदभावना, क्लिश्यमानोंके विषयमें कारुण्यभावना, और अविनेय जीवों के विषयमें मध्यास्थ्यभावना रखनी चाहिये । किसीसे भी वैरभाव न रखनेको मैत्री" कहते हैं । यथा- क्षमेऽहं सर्वसत्त्वानाम्, क्षमयेऽहं सर्वसत्त्वान् । मैत्री मे सर्वसत्वेषु वैरं मम न केनचित् ॥ अर्थात् मैं प्राणिमात्रपर क्षमा करता हूँ, और सभी प्राणियोंसे मैं क्षमा कराता हूँ, सभी प्राणियों के विषयमें मेरा मैत्रीभाव है, मेरा किसी के भी साथ वैरभाव नहीं है । इस प्रकार अपने या परके अपराधोंका लक्ष्य करके अथवा विना अपराधके भी जो अनेक जीव किसी के साथ द्वेषभाव धारण कर शत्रुता उत्पन्न कर लेते हैं, वह इस लोक और परलोक दोनों ही जगह दुःखरूप या दुःखका कारण है, ऐसा समझकर उसको छोड़ना और पुनः पुनः वीतद्वेषता - निर्वैरता के उभय लोकसम्बन्धी गुणों का चिन्तवन करना, इसको मैत्रीभावना कहते हैं । जो अपने गुणों में अधिक हैं, उनको देखकर या उनका विचार करके हृदयमें प्रमोदहर्ष होना चाहिये । सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र और समीचीन तप इन गुणों के धारण पालन करनेमें जो अधिक है, ऐसे साधुओंके विषयमें मनमें ऐसे अतिशयित हर्षको धारण करना, जोकि समस्त इन्द्रियोंकी चेष्टाको देखकर प्रकट होता हो, तथा स्वयं की गई या दूसरेके द्वारा की गई अथवा दोनोंके द्वारा की गई पूजाके द्वारा उत्पन्न हो, एवं उनकी बन्दना स्तुति वर्णवाद - वर्णनीय गुणों का निरूपण - प्रशंसा और वैयावृत्य करने आदिके द्वारा विनयगुणका प्रयोग करना इसको प्रमोद कहते हैं । यह प्रमोदभावना निरन्तर करनी चाहिए, कि ऐसे साधुपुरुषों का कब समागम हो, कि जिनकी सेवामें मैं रत होकर अपनेको धन्य बनाऊं । तथा समागम प्राप्त होनेपर इस गुणसे प्रयुक्त होना चाहिये । ओ क्लिश्यमान जीव हैं, उनमें कारुण्यभावना होनी चाहिये । जो दुःखित हैं, अनेक प्रकारके क्लेशोंको भोग रहे हैं, उनको देखकर हृदयमें करुणाभाव जागृत होना चाहिये। कारुण्य अनुकम्पा और दीनानुग्रह ये शब्द एक ही अर्थके वाचक हैं । जो महान् मोहसे ग्रस्त हैं, 'कुमति कुश्रुत और विभंगरूप अज्ञानसे परिपूर्ण हैं, विषयोंके सेवनकी तीव्र तृष्णारूपं अग्निसे जिनका मन अत्यन्त दग्ध हो रहा है, वास्तविक हितकी प्राप्ति और अहितके परिहार करने से १ --- अनादिकर्मबन्धनवशात्सीदन्तिइति सत्त्वाः । २ - सम्यग्ज्ञानादिभिः प्रकृष्टा गुणाधिकाः । ३ - असद्वेद्योदयापादितक्लेशाः क्लिश्यमानाः ।। ४- तीव्रमोहिनो गुणशून्या दुष्टपरिणामाः ॥ ५-- परेषां दुःखानुत्पत्त्यभिलाषो मैत्री, ऐसा भी लक्षण बताया है। कितने ही भोले अज्ञानी लोक इस मैत्रीभावनाका अर्थ जीवमात्रके साथ खाने पीनेका समान व्यवहार करने लगते हैं, सो मिथ्या हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy