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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[सप्तमोऽध्यायः
सुखरूप ही मानता है । परन्तु उसका खानके खुजानेको सुख समझना अज्ञान है । इसी प्रकार मैथुन सवेन करनेवालेके विषयमें समझना चाहिये । अन्तरङ्गमें वेदकर्मके उदयसे पीड़ित और बाह्यमें द्रव्यवेदके विकारोंसे त्रस्त हुआ जीव उसके प्रतीकारकी इच्छासे मैथुन कर्ममें प्रवृत्त हुआ करता है, और मैथुन करते समय सुखका अनुभव करता है । परन्तु अन्तमें उसकी विरसताका ही अनुभव होता है । अतएव विवेकीजन इस लोक और परलोक दोनों ही भवमें दुःखके कारणभूत इस मैथुन-कर्मसे उपरत होनेको ही श्रेयस्कर समझते हैं।
परिग्रहवान् जीव जबतक उसकी प्राप्ति नहीं होती, तबतक तो उसकी प्राप्तिकी इच्छासे दुःखी रहा करता है । प्राप्ति हो जानेपर यह नष्ट न हो जाय, इस अभिप्रायसे उसकी रक्षा करनेमें चिन्तित रहा करता है। यदि कदाचित् वह नष्ट हो जाय, तो उसके वियोगसे उत्पन्न शोकके द्वारा दग्धचित्त हो जाया करता है । इस प्रकार परिग्रहकी अप्राप्ति प्राप्ति और वियोग ये तीनों ही अवस्थाएं दुःखरूप ही हैं । परिग्रहासक्त मनुष्यको इसकी प्रत्येक अवस्थामें दुःखकी ही प्राप्ति हुआ करती है । अतएव परिग्रहसे विरत होना ही कल्याणका मार्ग है।
इस प्रकार हिंसादिक पाँचों पापोंके विषयमें निरन्तर दुःखरूपताका भावन-विचार करते रहनेवाले व्रती पुरुषके व्रतोंमें स्थिरता हुआ करती है।
भाष्यम्-किश्चान्यत् ।
अर्थ-ऊपर अहिंसादिक प्रतोंको स्थिर करनेवाली दो प्रकारकी भावनाएं बताई हैं। एक तो हिंसादिकमें दोनों भवके लिये दुःखोंकी कारणताका पुनः पुनः विचार और दूसरी साक्षात् दुःखरूपताकी भावना । इनके सिवाय और भी भावनाएं हैं, कि जिनके निमित्तसे उपर्युक्त व्रत स्थिर रहा करते हैं। उन्हींको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं:सूत्र-मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि
सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेषु ॥ ६॥ भाष्यम्-भावयेयथासख्यम् ।-मैत्री सर्वसत्त्वेषु ।
क्षमेऽहं सर्वसत्त्वानाम् , क्षमयेऽहं सर्वसत्त्वान् ।
मैत्री मे सर्वसत्त्वेषु, वैरं मम न केनचिद् ॥ इति । प्रमोदं गुणाधिकेषु । प्रमोदो नाम विनयप्रयोगो वन्दनस्तुतिवर्णवादवैयावृत्त्यकरणादिभिः सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपोऽधिकेषु साधुषु परात्मोभयकृतपूजाजनितः सर्वेन्द्रियाभव्यक्तो मनःप्रहर्ष इति। कारुण्य क्लिश्यमानेषु । कारुण्यमनुकम्पा दीनानुग्रह इत्यर्थः। तन्महामोहाभिभूतेषु मतिश्रुतविभङ्गाज्ञानपरिगतेषु विषयतर्षाग्निना दन्दह्यमानमानसेषु हिताहितप्राप्तिपरिहारविपरीतप्रवृत्तिषु विविधदुःखादितेषु दीनकृपणानाथवालमोमुहवृद्धेषु सत्वेषु भावयेत् । तथाहि भावयन् हितोपदेशादिभिस्ताननुगृह्णातीति ॥माध्यस्थ्यमविनेयेषु। माध्यस्थ्यमौदासीन्यमुपेक्षेत्यनर्थान्तरम् । अविनेया नाम मृत्पिण्डकाष्ठकुड्यभूता ग्रहणधारणविज्ञानोहापोहवियुक्ता महामोहाभिभूता दुष्टाववाहिताश्च । तेषु माध्यस्थ्यं भावयेत् । न हि तत्र वक्तुहितोपदेशसाफल्यं भवति ।
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