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सूत्र ५।]
समाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
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योको वह अनिष्ट है। प्राणोंका व्युपरम-घात-पृथक् करना मुझे ही नहीं जीवमात्रको अनिष्ट है । मेरे समान कोई भी प्राणी यह नहीं चाहता, कि मुझे दुःखकी प्राप्ति हो, अथवा मेरे प्राणोंका घात हो। अतएव हिंसासे व्युपरति-हिंसाका त्याग ही कल्याणका कारण है ।
मिथ्या भाषणसे जिस प्रकार मुझे दुःख होता है । यदि कोई मेरे विषयमें मिथ्या भाषण करता है, या किसीने किया है, तो उससे मुझे अति तीव्र दुःख होता है, और भूतकालमें भी हो चुका है, जिसका कि मुझे अनुभव है। इसी प्रकार प्राणिमात्रको मिथ्या भाषणसे दुःख हुआ करता है । मिथ्या भाषण मेरे समान जीवमात्रके लिये दुःखरूप है । अतएव अनृत वचनसे व्युपरम--उपरति होना ही कल्याणका मार्ग है। यदि मेरी किसी इष्ट वस्तुका वियोग हो जाय, तो उससे मुझे महान् दुःख होता है । इसी प्रकार प्राणिमात्रके विषयमें समझना चाहिये । सभीको अपनी अपनी प्रिय-इष्ट वस्तुका वियोग-अपहरण होजानेपर-चोरीमें चले जानेपर मर्मभेदी पीड़ा हुआ करनी है । अतएव चोरीसे उपराम लेना ही श्रेयस्कर है । ___ मैथुन-कर्म-अब्रह्मका सेवन भी दुःखरूप ही है। क्योंकि वह राग द्वेषरूप है । तीन रागसे प्रेरित हुआ-रागान्ध मनुष्य ही इस तरहके दुष्कर्म करनेमें प्रवृत्त हुआ करता है। अतएव इस दुःखसे दूर रहना सुखरूप समझना चाहिये । प्रश्न-मैथुनकर्मको जो आपने दुःखरूप कहा सो ठीक नहीं है, क्योंकि वह स्पर्शन इन्द्रियजन्य सुखरूप ही है। जो स्त्री और पुरुष मैथुनमें परस्पर प्रवृत्त होते हैं, वे उसको प्रिय अथवा इष्ट मानकर ही होते हैं, तथा उससे वे अपनेको सुखी भी मानते ही हैं, अतएव उसको दुःख किस तरह कहा जा सकता है ? उत्तर-यह शंका ठीक नहीं है। क्योंकि अब्रह्म वास्तवमें दुःख ही है । जो विवेकी हैं-विचारशील हैं, वे उसकी दुःखरूपताका ही अनुभव करते हैं, किन्तु जो मढ़-अज्ञानी हैं, वे उसको दुःखरूप होते हुए भी मुखरूप ही मानते हैं। वे उसको प्राप्त कर उसमें सुखका अनुभव किया करते हैं । इस प्रकारका भ्रम भी उन्हें जो होता है, उसका कारण यह है, कि यह मैथुन-कर्म ऊपरसे दुःखरूप नहीं मालूम होता । विवेकी पुरुष जब विचार करते हैं, तब उन्हें मालम होता है, कि इसका वास्तविक स्वरूप क्या है। यह अब्रह्म एक प्रकारकी व्याधिका प्रतीकारमात्र है। जिस प्रकार कोई दाद या खाजका रोगी खजाते समय सुखका अनुभव करता है, परन्तु पीछे उसीसे उसको दुःखका भी अनुभव होता है । उसी प्रकार प्रकृतमें भी समझना चाहिये । देखते हैं कि जब खाजका सम्बन्ध त्वचासे रुधिरमें और रुधिरसे भी मांसतक पहुँच जाता है, तब वह अत्यंत तीव्र हो उठती है, ऐसे खाजसे पीड़ित मनुष्य काष्ठखण्ड अथवा पत्थर या कंकड अथवा नख शक्ति सीप आदिके द्वारा उसका ऐसा घर्षण करता है कि जिससे उसका शरीर ही विच्छिन्न हो जाता, और रुधिरसे गीला हो जाया करता है। फिर भी जिस समय वह खुनाता है, उस समय उस दुःखको भी वह
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