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रायचन्द्रनैनशास्त्रमालायाम्
[ सप्तमोऽध्यायः
जिस प्रकार गृद्ध आदि कोई भी पक्षी जिसके कि पंजे में मांसका टुकड़ा लगा हुआ है, वह दूसरे मांसभक्षी पक्षियोंका शिकार बन जाता है-उससे वे पक्षी उस मांस- खण्डको लूट लेते हैं, और उसके लिये उसे अनेक प्रकारके त्रास भी देते हैं । उसी प्रकार परिग्रहवान् मनुष्य भी प्रत्यक्ष इसी लोकमें चोर डाकू आदिका निशान बन जाता है । धनके अर्जन-संचय और रक्षण तथा क्षय - नुकसान आदिके द्वारा जो दोष प्राप्त होते हैं, वे उसे सहन करने पड़ते हैं । फिर भी जिस प्रकार अग्निको ईंधनसे तृप्ति नहीं होती, उसी प्रकार परिग्रहीको भी धन से संतोष नहीं होता । लोभसे इतना आक्रान्त हो जाता है, कि उसको यह कार्य है या अकार्य सो नजरमें ही नहीं आता । वह विवेकशून्य होजाता है । इन दुर्भाव के निमित्तसे संचित पाप कर्मके उदयानुसार परलोकमें अनेक दुर्गतियोंमें प्राप्त हुआ करता है । तथा यह लोभी है, कंजूस है, इस तरहके वचन कह कह कर लोक उसकी निन्दा - अपकीर्ति भी किया करते हैं । अतएव इस दुःखद परिग्रहसे उपरम विरत होना ही कल्याणका मार्ग है ।
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इस प्रकारका निरन्तर विचार करनेसे अहिंसादि व्रत स्थिर रहा करते हैं, अतएव इनका हमेशा चिन्तवन करना चाहिये ।
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भाष्यम् - किं चान्यत् ।
अर्थ — ऊपर जो भावनाएं बताई हैं, उनके सिवाय और भी भावनाएं हैं, कि जिनके निमित्तसे उपर्युक्त व्रत स्थिर रहा करते हैं। उन्हींको बतानेके लिये आगे सूत्र कहते हैं । सूत्र - दुःखमेव वा ॥ ५॥
भाष्यम् -- दुःखमेव वा हिंसादिषु भावयेत् । यथा ममाप्रियं दुःखमेवं सर्वसत्त्वानामिति हिंसाया व्युपरमः श्रेयान् । यथा मम मिथ्याभ्याख्यानेनाभ्याख्यातस्य तीव्रं दुःखं भूतपूर्व भवति च तथा सर्वसत्त्वानामिति अनृतवचनाद् व्युपरमः श्रेयान् । यथा ममेष्टद्रव्यावियोगे दुःखं भूतपूर्वं भवति च तथा सर्वसत्त्वानामिति स्तेयाद्व्युपरमः श्रेयान् । तथा रागद्वेषात्मकत्वान्मैथुनं दुःखमेव । स्यादेतत् स्पर्शन सुखमिति तच्च न । कुतः ? व्याधिप्रतीकारत्वात् कण्डूपरिगतवच्चाब्रह्मव्याधिप्रतीकारत्वादसुखे ह्यस्मिन् सुखाभिमानो मूढस्य । तद्यथा तीव्रया त्वक्छोणितमांसानुगतया कण्या परिगतात्मा काष्ठशकललोष्ठशर्करानखशुक्तिभिर्विच्छिन्नगात्रो रुधिरार्द्रः कण्डूयमानो दुःखमेव सुखमितिमन्यते । तद्वन्मैथुनोपसेवीति मैथुनाद व्युपरमः श्रेयान् । तथा परि. ग्रहवानप्राप्तप्राप्तनष्टेषु कांक्षारक्षणशोकोद्भवं दुखःमेव प्राप्नोतीति परिग्रहाद् व्युपरमः श्रेयान् । इत्येवंभावयतो व्रतिनो व्रते स्थैर्यं भवति ।
अर्थ- - ऊपर हिंसादिक के विषयमें यह भावना करते रहने को बताया है, कि ये इस लोक और परलोक दोनों ही जगह दुःखके कारण हैं । सो उस प्रकारका विचार पुनः पुनः करना चाहिये । अब यहाँ कहते हैं, कि इन उपर्युक्त हिंसादिक पाँच पापोंके विषयमें दुःखकी कारणताका ही नहीं किन्तु दुःखरूपताका भी विचार करना चाहिये । निरंतर इस प्रकार की भी भावना करनी चाहिये, कि, ये हिंसादिक साक्षात् दुःखरूप ही हैं । जिस प्रकार दुःख मुझे अप्रिय है, उसी प्रकार सभी प्राणि
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