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________________ सूत्र ४।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ३२३ पड़ता है। अतएव इस लोक और परलोकमें निन्दा दुष्कर्म और क्लेशोंकी कारणभूत हिंसाका न्युपरम-त्याग करना ही कल्याणका कारण है। मिथ्या वचन बोलनेसे जीव श्रद्धाका पात्र नहीं रहता। इसी लोकमें जिह्वा-छेदन आदि अनेक अशुभ दुःखमय फलों को प्राप्त हुआ करता है। जिसके विषयमें झूठ बोला जाता है, उस व्यक्तिको महान् दुःख होता है, और वह उससे दुःखित होकर बद्धवैर-सदाके लिये वैर बाँध लेता है, अतएव उस झठ वचनसे जितना उसको दुःख हुआ था, उससे भी अधिक दुःखके कारण कालान्तरमें उस नीवसे झूठ बोलनेवालेको प्राप्त हुआ करते हैं । इस मिथ्या भाषणके फलस्वरूप परलोकमें अशुभ गतियोंमें भ्रमण करना पड़ता है, और वहाँके दुःख भी भोगने पड़ते हैं। तथा इस लोक और परलोक दोनों ही जगह निन्दाका पात्र बनना पड़ता है । अतएव इस महान् गी अनृत वचनसे व्युपरत होना ही श्रेयस्कर है। दूसरेके द्रव्यका अपहरण करनेमें ही जिसकी बुद्धि आसक्त है-निरन्तर लीन रहती है, ऐसा चोर-चोरी करनेवाला मनुष्य सभीके लिये उद्वेगका पात्र बन जाता है। हरएक मनुष्य उससे डरता और सावधान रहा करता है । उसको राजा आदिसे भी अनेक प्रकारके क्लेश प्राप्त हुआ करते हैं । कभी मार पड़ती है, कभी बध भी हो जाता है, कभी बन्धनमें डाल दिया जाता है, कभी हाथ पैर कान नासिका और ऊपरके ओष्ठका छेदन कर दिया जाता है, कभी अङ्गोपाङ्गोंका विदारण भी किया जाता है, कभी उसके सर्वस्व-धन संपत्ति घर जमीन आदिको जप्त कर लिया जाता है।वध्य यातनाओंको प्राप्त होता तथा कभी कभी मरणको भी प्राप्त हो जाया करता है । इस दुष्कृत्यके निमित्तसे संचित पापकर्मके उदयसे परलोकमें नाना दुर्गतियोंमें भ्रमण करना पड़ता है । तथा दोनों ही लोकमें निन्दाका पात्र बनना पड़ता है । अतएव चोरीसे उपरति होना ही कल्याणका मार्ग है।। जो अब्रह्म-कुशीलका सेवन करनेवाला है, वह मनुष्य विक्षिप्त चित्त बन जाता है-उसका हृदय अनेक प्रकारके विभ्रमोंसे उदभ्रान्त रहा करता है। उसकी इन्द्रियाँ निर्बन्ध रहा करती हैं। वे लगाम घोडेकी तरह हर तरफको दौडा करती हैं, और इसीलिये वह मदान्ध हाथीके समान निरङ्कश हो जाता है। किन्तु उसको सुखकी प्राप्ति नहीं हुआ करती । मोहसे वह इतना अभिभूत-आक्रान्त होजाता है, कि कर्तव्य और अकर्तव्यका • कुछ भी विचार नहीं कर सकता, और इसी लिये ऐसा कोई भी अकुशल-बुरा काम नहीं है, जिसको कि वह न कर डालता हो । परस्त्रीसे गमन करनेवालोंको इसी लोकमें वैरानबन्ध लिङ्गच्छेदन बध बन्धन और सर्वस्वका अपहरण आदि अनेक क्लेश प्राप्त हुआ करते हैं। परलोकमें दुर्गतियोंमें भ्रमण करना पड़ता, और वहाँके दुःख भोगने पड़ते हैं । तथा दोनों ही लोकमें व्यभिचारीको निन्दाका पात्र बनना पड़ता है। इत्यादि कारणोंसे इस कुशीलका त्याग ही श्रेयस्कर है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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