________________
३२२
रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
भाष्यम् - किं चान्यत्
अर्थ- - ऊपर प्रत्येक व्रतकी जो भावनाएं बताई हैं, उनके सिवाय सामान्यतया सभी व्रतोंको स्थिर करनेवाली भी भावनाएं हैं। उन्हीं को बतानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
―――――
सूत्र - हिंसादिष्विहामुत्र चापायावद्यदर्शनम् ॥ ४॥
Jain Education International
[ सप्तमोऽध्यायः
भाष्यम् - हिंसादिषु पंचस्वास्त्रवेष्विहामुत्र चापायदर्शनमवद्यदर्शनं च भावयेत् । तद्यथा हिंसायास्तावत् हिंस्रो हि नित्योद्वेजनीयो नित्यानुवद्भवरश्च । इहैव बधबन्धपरिक्लेशादीन् प्रतिलभते प्रेत्य चाशुभां गतिं गर्हितश्च भवतीति हिंसाया व्युपरमः श्रेयान् । तथानृतवाद्यश्रद्धेो भवति । इहैव जिह्वाच्छेदादीन् प्रतिलभते, मिथ्याभ्याख्यानदुःखितेभ्यश्च बद्धवैरेभ्यस्तदधिकान् दुःखहेतून प्राप्नोति प्रेत्य चाशुभां गतिं गर्हितश्च भवतीत्यनृतवचनाद् व्युपरमः श्रेयान् । तथा स्तेनः परद्रव्यहरणप्रसक्तमतिः सर्वस्योद्वेजनीयो भवतीति । इहैव चाभिघातबधबन्धनहस्तपादकर्णनासोत्तरोष्ठच्छेदन भेदन सर्वस्वहरणबध्ययातनमारणादीन् प्रतिलभते प्रेत्य चाशुभां गतिं गर्हितश्च भवतीति स्तेयाद् व्युपरमः श्रेयान् । तथाऽब्रह्मचारी विभ्रमोदभ्रान्तचित्तः विप्रकीर्णेन्द्रियो मदान्धो गज इव निरङ्कुशः शर्म नो लभते । मोहाभिभूतश्च कार्याकार्या नभिज्ञो न किंचिदकुशलं नारभते । परदाराभिगमनकृतांश्च इहैव वैरानुबन्धालिङ्गच्छेदनबधबन्धनद्रव्यापहारादीन् प्रतिलभतेऽपायान् प्रेत्य चाशुभां गतिं गर्हितश्च भवतीत्यब्रह्मणो ब्युपरमः श्रेयान् इति । तथा परिग्रहवान् शकुनिरिव मांसपेशीहरुतोऽन्येषां क्रव्यादशकुनानामिव तस्करादीनां गभ्यो भवति । अर्जनरक्षणक्षयकृतांश्च दोषान् प्राप्नोति । न चास्य तृप्तिर्भवतीन्धनैरिवाग्नेर्लोभाभिभूतत्वाच्च कार्याकार्यानपेक्षो भवति । प्रेत्य चाशुभां गतिं प्राप्नोति, लुब्धोऽयमिति च गर्हितो भवतीति परिग्रहाद् व्युपरमः श्रेयान् ॥
अर्थ — हिंसा आदि पाँच पाप कर्मरूप जो ऊपर आस्रव बताये हैं, उनके विषयमें इस लोक और परलोकमें निरन्तर अपायदर्शन और अवद्यदर्शनका विचार करना चाहिये । अर्थात् इनके विषयमें सदा इसी प्रकारका विचार करते रहना चाहिये, कि ये हिंसादि पाँचों ही पाप कर्म इस लोक और परलोक में भी अपाय तथा अवद्य के कारण हैं । इनके निमित्त से इस लोक में ही अनेक प्रकारके अपाय- - क्लेश सहन करने पड़ते हैं, और परलोकमें भी इनके ही निमित्तसे बँधे हुए पाप कर्मके उदयसे दुर्गतियोंके नाना दुःख भोगने पड़ते हैं । इत्यादि । जैसे कि हिंसा के विषय में प्रत्यक्ष ही लोकमें देखा जाता है, कि हिंस्र - हिंसा करनेवाला जीव मित्य ही ग्लानिका पात्र रहा करता है-उससे सब लोग उद्विग्न रहा करते हैं, अथवा स्वयं वह भी सदा भयसे कम्पित और अस्थिर तथा उद्विग्न चित्त रहा करता है । उससे अनेक जीवोंका वैर बँध जाता है, और वे उसके शत्रु बन जाते हैं । किसीको भी मारनेवाला यहाँका यहीं बा-बन्धन आदि दुःखों को प्राप्त हुआ करता है । फांसी पर लटकाया जाता है, बाँधकर जेलखानेमें डाल दिया जाता है, और अनेक तरहके भूख प्यास आदिक क्लेशोंको भी भोगता है । इस पापके निमित्तसे जो दुष्कर्म बँधता है, उसके उदयसे अशुभ गतियोंमें भी भ्रमण करना पड़ता है, और इस लोकके समान उन गतियों में भी निन्दाका पात्र बनना
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org