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________________ सूत्र ७ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ३२९ ___ अर्थ-संवेग और वैराग्यको सिद्ध करनेके लिये जगत्-लोक और शरीरके स्वरूपका चिन्तवन करना चाहिये । क्योंकि इनके स्वभावकी पुनः पुनः भावना करनेसे व्रतोंको स्थिर रखनेवाले संवेग और वैराग्य गुण प्रकट हुआ करते हैं, अतएव इन दोनोंके स्वभावकी भी भावना करनेकी आवश्यकता है । सम्पूर्ण द्रव्यों के समूहको जगत् या लोक कहते हैं । द्रव्योंके प्रादुर्भाव तिरोभाव स्थिति-उत्पाद व्यय ध्रौव्य, और भेद करना या भिन्न होना, अथवा भिन्न रहना, अनुग्रह करना या अनुग्रहीत बनना, दूसरेका विनाश करना अथवा स्वयं विनष्ट होना, आदि स्वभाव हैं। किन्तु वे कथंचित् अनादि और कथंचित् आदिमान् परिणामसे युक्त हैं । यही जगत्का स्वभाव है। इसका पुनः पुनः विचार करना चाहिये । अनित्यता-सदा एकसा न रहना अथवा नश्वरता, दुःखोंका हेतु-कारण बनना, निःसारता और अशुचित्व ये शरीरके स्वभाव हैं। क्योंकि कितना भी प्रयत्न किया जाय, शरीर स्थिर रहनेवाला नहीं है, तथा संसारी प्राणियोंको जो नाना प्रकारके दुःख भोगने पड़ते हैं, वे इसीके निमित्तसे प्राप्त होते और भोगनेमें आते हैं, शरीरके समस्त अङ्ग और उपाङ्गोंको तथा धातु उपधातुओंको यदि पृथक् पृथक् करके देखा जाय, तो इसमें सारभूत पदार्थ कुछ भी दृष्टिगत नहीं हो सकता । शरीरका प्रत्येक अंश अशुचि-अपवित्र है। इस प्रकार जगत् और शरीरके स्वभावकी भावना करनेसे संवेग और वैराग्य सिद्ध हुआ करते हैं। संसारसे सदा भयभीत रहना, आरम्भ और परिग्रहके दोषोंको देखकर उनके विषयमें अरुचि रहना-उनके ग्रहण सेवनकी प्रीति न होना, धर्मके विषयमें अत्यंत आदर भावका होना, धार्मिक पुरुषों के विषयमें तथा धर्मके स्वरूपका श्रवण करनेमें एवं धर्मात्माओंका दर्शन करनेपर चित्तमें हर्ष-प्रसन्नता होना, और उत्तरोत्तर गुणों-रत्नत्रयकी प्रतिपत्तिमें-प्राप्तिमें अथवा धर्मात्माओंके विशिष्ट गुण मालूम होनेपर उनके विषयमें श्रद्धा बुद्धिका होना संवेग कहा जाता है। तथा शरीर भोग और संसारसे ग्लानि होजानेके कारण जो उपशम भावको प्राप्त हो चुका है, ऐसे पुरुषका बाह्य और अभ्यन्तर उपधि-परिग्रहोंके विषयमें अभिष्वङ्ग-असक्तिका न होना इसको वैराग्य कहते हैं। भावार्थ-जगत्का स्वरूप मालूम हो जानेपर और उसका पुनः पुनः विचार करनेसे संसारसे भय होता है, क्योंकि वह जन्ममरणादिरूप नाना दुःखोंसे आकीर्ण है। एवं शरीरके स्वरूपका पुनः पुनः विचार करनेसे वैराग्य होता है। क्योंकि जिन भोग उपभोग और उनके साधनोंके विषयमें जीवको राग भाव हुआ करता है, वे शरीराश्रित हैं, और शरीर अनित्य दुःखहेतु निःसार तथा अशुचि है । अतएव शरीरमेंसे आसक्ति हट जानेपर समस्त भोगोपभोगमेंसे ही राग भाव हट जाता है । इसलिये जगत्-स्वभावकी भावना संवेगकी और काय-स्वभावकी भावना वैराग्यकी जननी है । इन दोनों गुणोंके प्रकट होनेसे भी अहिंसादिक व्रत स्थिर रहा करते हैं। ४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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