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________________ सप्तमोऽध्यायः। भाष्यम्-अत्राह---उक्तं भवता सद्वेद्यस्यास्त्रवेषु “ भूत्वत्यनुकम्पति ?” तत्र किं व्रतं को वा व्रतीति ? अत्रोच्यते । अर्थ-प्रश्न-आपने पहले गत छटे अध्यायके १२ वें सत्रमें “ भृत व्रत्यनुकम्पा" शब्दका प्रयोग किया है। जिसका अभिप्राय यही था, कि भूत-प्राणिमात्रपर और खासकर व्रतियोंपर अनुकम्पा करनेसे सद्वेद्यकर्मका आस्रव होता है । व्रती शब्दका अर्थ व्रतोंको धारण करनेवाला होता है । अतएव यह भी बतानेकी आवश्यकता है, कि वे व्रत कौन हैं, कि जिनको धारण करनेवाला व्रती कहा जाता है, तथा व्रती भी किसको समझना चाहिये ? इस प्रश्नका उत्तर देनेके लिये ही आगेका सूत्र कहते हैं:--- ... सूत्र--हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ॥ १॥ भाष्यम्-हिंसाया अमृतवचनात्स्येयादब्रह्मतः परिग्रहाच्च कायवाङ्मनोभिर्विरतिव्रतम् । विरति म ज्ञात्वाभ्युपेत्याकरणम् । अकरणं निवृत्तिरुपरभो विरतिरित्यनर्थान्तरम् ॥ ___अर्थ-हिंसा, अनृत वचन-मिथ्या भाषण, स्तेय-चोरी, अब्रह्म--कुशील, और परिग्रह, इन पाँच पापोंसे मन वचन और कायके द्वारा जो विरति होती है, उसको व्रत कहते हैं। विरतिका अर्थ होता है, कि जानकर और प्राप्तकरके इन कार्योंको न करना । न कराना, निवृत्ति, उपरम, और विरति ये सब शब्द एक ही अर्थके वाचक हैं। भावार्थ-जो विषय मालूम ही नहीं है, या जिस विषयमें बालकवत् अज्ञान हैं, उसका त्याग भी कैसे किया जा सकता है । इसी प्रकार जो विषय प्राप्त ही नहीं हो सकता, उसका त्याग भी किस प्रयोजनका ? अतएव जिसको हम प्राप्तकर सकते हैं, और जानते हैं, फिर भी उसका छोड़ना, इसको व्रत कहते हैं। त्याग पापकर्मका ही हो सकता है, और करना चाहिये । प्रकृत में पाप पाँच गिनाये हैं, जिनका कि त्याग व्रत कहा जाता है। इन पाँचो पापोंका लक्षण आगे चलकर लिखा जायगा। इसके पहले त्यागरूप व्रत कितने प्रकारका है, और उसका स्वरूप क्या है ? सो 'बतानेके लिये सूत्र कहते हैं। सूत्र-देशसर्वतोऽणुमहती ॥२॥ भाष्यम्-एभ्यो हिंसादिभ्य एकदेशविरतिरणुव्रतं सर्वतो विरतिर्महाव्रतमिति ॥ __ अर्थ-~~-ऊपर जो हिंसा झूठ चोरी आदि पाँच पाप गिनाये हैं, उनका एकदेश त्याग करना अणुव्रत, और सर्वात्मना त्याग करना महाव्रत कहा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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