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________________ ३१८ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ षष्ठोऽध्यायः मन वचन कायकी जैसी जैसी परिणति होती है, वह वह अपनी अपनी योग्यता के अनुसार आठ प्रकारके कर्मोंमेंसे जिस जिसके बन्धके लिये योग्य है, उस उसके होनेपर उसी उसी कर्मका बंध भी हो जाता है । किन्तु कमसे कम सात कर्मोंका और कदाचित आठ कर्मो का भी जीवों के साम्परायिकबन्ध हमेशा हुआ करता है । अतएव यहाँपर यह शंका हो सकती है, कि जब यहाँपर तत्तत्कर्मके आस्रव बताये हैं, तो उनसे तो यही बात सिद्ध होती है, कि इन इन आस्रव-कारणोंके होनेपर उन्हीं उन्हीं कर्मोंका बन्ध हो सकता है, जिनका कि यहाँपर उल्लेख किया गया है, दूसरे कर्मोंका नहीं । जैसे कि ज्ञानका प्रदोष या निन्हव होने पर ज्ञानावरणकर्मका ही बन्ध हो सकता है, शेष कर्मोंका नहीं । ऐसी दशा में युगपत् सम्पूर्ण कर्मोका बन्ध कैसे माना जा सकता है ? उत्तर - यह साम्परायिकबन्धका प्रकरण है, साम्परायिकबन्धमें स्थितिकी प्रधानता है, क्योंकि स्थितिबन्ध कषायके आधीन है । अतएव इन आस्त्रवकारणोंको भी स्थिति के ही साथ सम्बद्ध करना चाहिये । अर्थात् इन इन कारणों के होनेपर उन उन कर्मोंमें स्थितिबन्ध विशेष पड़ता है, जिनका कि यहाँपर उल्लेख किया गया है । आस्रव और बन्ध सामान्यतया शेष कर्मोंका भी हो सकता है, इसमें किसी भी तरह की आपत्ति नहीं है । यहाँपर जो आस्रवके कारण गिनाये हैं, वे प्रतीक मात्र अथवा उपलक्षणमात्र हैं, अतएव इनके समान और भी जो जो कारण शास्त्रों में बताये हैं, वे भी उन उन कर्मों के बन्धमें कारण समझ लेने चाहिये | इस प्रकार तत्त्वार्थाधिगमभाष्यका छट्टा अध्याय समाप्त हुआ || १ - आयुकर्म के बन्धके योग्य आठ अपकर्षकाल माने हैं । उसका बन्ध उन्हीं समयोंमें हुआ करता है शेष समय में बाकी सात कर्मोंका ही बंध हुआ करता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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