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सूत्र २४-२५-२६ । ] सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
३१७ क्रमानुसार उच्चगोत्रकर्मके आस्रवोंको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं
सूत्र-तविपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्य ॥ २५ ॥ भाष्यम् --उत्तरस्येति सूत्रक्रमप्रामाण्यादुच्चैर्गोत्रस्याह । नीचैर्गोत्रास्रवविपर्ययो नीचैत्तिरनुत्सेकश्चोच्चैर्गोत्रस्यास्रवा भवन्ति।
अर्थ—सूत्रमें उत्तर शब्द जो आया है, उससे उच्चैर्गोत्रकर्मका ग्रहण समझना चाहिये। वयोंकि सूत्रमें पठित क्रम प्रमाण है । अतएव ऊपरके सूत्रमें जो नीचे!त्रकर्मके आस्रव बताये हैं, उनसे विपरीत भाव और नीचैर्वृत्ति तथा अनुत्सेक ये उच्चगोत्रकर्मके आस्रव हैं।
भावार्थ-अपनी निन्दा करना, दूसरेकी प्रशंसा करना, दूसरेके असद्गुणोंका आच्छादन करना, अपने सद्भूत भी गुणोंका गोपन करना, दसरेके सद्भूत गुणोंको प्रकट करना, नीचैवृत्ति रखना-सबके साथ नम्रतापूर्वक व्यवहार करना, किसीके भी साथ उद्धतताका व्यवहार न करना-गर्व रहित प्रवृत्ति रखना, ये गुण उच्चैर्गोत्रकर्मके बन्धके कारण हैं।
क्रमानुसार अन्तरायकर्मके आस्रवको बताते हैं
सूत्र-विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥ २६ ॥ भाष्यम्-दानादीनां विघ्नकरणमन्तरायस्यास्रवो भवतीति। एतेसाम्परायिकस्याष्टविधस्य पृथक् पृथगास्रवविशेषा भवन्तीति
॥ इति तत्त्वार्थाधिगमेऽहत्प्रवचनसंग्रहे षष्ठोऽध्यायः समाप्तः॥ अर्थ-दानादिकमें विघ्न करना अन्तरायकर्मका आस्रव है।
भावार्थ-अन्तराय कर्म ५ प्रकारका है-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, और वीर्यान्तराय। दान लाभ भोग उपभोग और वीर्यमें जिस कर्मके उदयसे सफलता न हो, वह अन्तरायकर्म है, उपका बन्ध भी इन विषयोंमें विघ्न उपस्थित करनेसे हुआ करता है। किसी दाताको दानसे रोकना, दाता और दानकी निन्दा करना, दानके साधनोंको नष्ट करना छिपाना, या पात्रका संयोग न होने देना आदि दानान्तरायाक आस्रव है । इसी प्रकार किसीके लाभमें विघ्न डालना लाभान्तरायका, मोगोंमें विघ्न करना भोगान्तरायका, उपभोगमें विघ्न करना • उपभोगान्तरायका, और वीर्य-शक्तिसम्पादनमें विघ्न उपस्थित करना वीर्यान्तरायका आस्रव है।
ऊपर आठ प्रकारके ज्ञानावरणादि कर्मोंके साम्परायिक आस्रवके भेद क्रमसे बताये हैं। क्योंकि यह सामान्य कथन है । अतएव इनके जो अवान्तर भेद हैं, उनके बन्धके कारण भी इसी नियमके अनुसार यथायोग्य समझ लेने चाहिये। - भावार्थ-कार्माणवर्गणाओंका आत्माके साथ जो एकक्षेत्रावगाह होकर कर्मरूप परिणमन होता है, उसका कारण योग और कषाय है। योग और कषायके निमित्तसे जीवके
प: समाप्तः॥
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