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________________ ३१६ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ षष्ठोऽध्यायः न हो इस तरह से भावपूर्वक अनुष्ठान करना, सम्यग्दर्शन आदि जो मोक्षके मार्ग बताये हैं, उनका अच्छी तरह सन्मान करना, और दूसरोंको भी उपदेश देकर वैसा करने के लिये समझाना, तथा हर तरहसे शारीरिक चेष्टा और उपदेशके द्वारा मोक्षमार्गके माहात्म्यको प्रकट करना, अरिहंत भगवान् के शासनका पालन करनेवाले श्रुतघर आदिके विषयमें प्रवचनवात्सल्य का पालन करना - अर्थात् श्रुतधर बाल वृद्ध तपस्वी शैक्ष ग्लान गणे आदि के साथ गौ का अपने बच्चे के साथ जैसा प्रेम हुआ करता है, उसी प्रकार प्रेम रखना, ये सोलह गुण हैं, जोकि सबके सब मिलकर अथवा इनमेंसे एक दो तीन चार आदि मिलकर भी तीर्थकरनामकर्मके आस्रव हुआ करते हैं । भावार्थ - इन सोलह कारणोंको ही षोडशकारणभावना भी कहते हैं, क्योंकि इनके निमित्तसे तीर्थंकर प्रकृतिका बंध होता है । इनमें पहला कारण - - दर्शनविशुद्धि प्रधान है ।" उसके रहते हुए ही शेष १५ कारणोंमेंसे एक दो आदि जितने भी कारण होंगे, वे तीर्थकर बंध के निमित्त हो सकते हैं । परन्तु दर्शनविशुद्धि के विना कोई भी कारण - गुण - तीर्थकर नामकर्म के बन्धका कारण नहीं बन सकता । क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव ही उसके बन्धका प्रारम्भक माना गया है । नामकर्म के अनन्तर गोत्रकर्म है, उसके दो भेद हैं- नीचगोत्र और उच्चगोत्र । इनमें से पहले नचिगोत्र के आस्रव बताते हैं सूत्र - परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणाच्छादनोद्भावने च नीचेगोत्रस्य ॥ २४ ॥ भाष्यम् – परनिन्दात्मप्रशंसा सद्गुणाच्छादनमसद्गुणोद्भावनं चात्मपरोभयस्थं नीचे - गोत्रस्यास्त्रवा भवन्ति ॥ अर्थ — दूसरेकी निन्दा करना, अपनी प्रशंसा करना, दूसरे के समीचीन भी गुणोंका आच्छादन करना, अपने असद्भूत गुणों का भी उद्भावन करना, अथवा सद्गुणों का आच्छादन और असद्गुणोंका उद्भावन अपने विषयमें हो या दूसरे के विषयमें हो, यद्वा दोनों के विषयमें हो, नीचगोत्रका आस्रव हुआ करता है । भावार्थ - अपने अयोग्य गुणों-दोषों को भी लोक में समीचीन गुण बतानेका प्रयत्न करना, इसके विपरीत दूसरे के समीचीन गुणों को भी मिथ्या अथवा दोषरूप जाहिर करना, तथा इसकी मिश्ररूप- दोनों तरहकी प्रवृत्ति करना नीचगोत्रका आस्रव है । १ - प्रवचन शब्दका अर्थ दो प्रकारसे होता है - एकतो प्रकृष्टं च तद्वचनं च प्रवचनम् । दूसरा प्रकृष्टं वचनं यस्य स प्रवचनः । इसी लिये प्रवचन - श्रुत और श्रुतधर आदि दोनोंके विषय में वात्सल्य रखना प्रवचनवात्सल्यगुण बताया है । श्रुतधर- उपाध्याय, तपस्वी - महान् उपवास आदि करनेवाला, शैक्ष- शिक्षाग्रहण करनेवाला, ग्लान- रोग आदि से संक्लिष्ट, गण - स्थविर संतति । " वत्सलत्वं पुनर्वत्सेधेनुवत्संप्रकीर्तितम् | जैने प्रवचने सम्यक् श्रद्धानज्ञानवत्स्वपि ॥” २ -- हग्विशुद्धपादयो नाम्नस्तीर्थ कृत्वस्यहेतवः । समस्तरूपावादृग्विशुद्धया समन्विताः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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