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________________ सूत्र १३-१४ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ये सब कारण या इनमेंसे एकादिके भी होनेपर सातावेदनीय कर्मका बंध हुआ करता है । मूल सूत्रमें छह कारणोंका ही उल्लेख है-भूतव्रत्यनुकम्पा, दान, सरागसंयमादि, योग, शान्ति और शौच । भूतों-चारों गतियोंके प्राणियोंमें व्रतियोंका भी समावेश होजाता है, फिर भी उनका जो विशेषरूपसे नामोल्लेख किया है, सो साधारण प्राणियोंकी अपेक्षा उनको विशेषरूपसे अनुकम्पाका विषय बतानेके लिये है। आदि शब्दसे संयमासंयम अकामनिर्जरा और बालतप आदिका ग्रहण समझना चाहिये ।। वेदनीयकर्मके अनन्तर मोहनीयकर्म है। इसके दो भेद हैं-दर्शनमोह और चारित्रमोह । इनमेंसे क्रमानुसार पहले दर्शनमोहके बंधके कारणोंको बताते हैं: सूत्र केवलिश्रुतसङ्घधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ॥१४॥ __ भाष्यम्--भगवतां परमर्षीणां केवलिनामहत्प्रोक्तस्य च साङ्गोपाङ्गस्य श्रुतस्य चातुर्वय॑स्य सङ्घस्य पञ्चमहाव्रतसाधनस्य धर्मस्य चतुर्विधानां च देवानामवर्णवादो दर्शनमोहस्यानवा इति ॥ ___ अर्थ--परमर्षी भगवान् केवली, अर्हन्त भगवान्का प्ररूपित साङ्गोपाङ्ग श्रुत, चातुर्वर्ण्यसङ्घ, पञ्च महाव्रतोंका साधनरूप धर्म, तथा चार प्रकारके देव, इनका अवर्णवाद करना दर्शनमोहकर्मके बन्धका कारण है। भावार्थ-जिनकी क्लेश-राशि नष्ट हो चुकी है, उनको ऋषि कहते हैं । तेरहवें गुण. स्थानवर्ती परमात्मा परमर्षि हैं । सम्पूर्ण ऐश्वर्य वैराग्य आदि अनेक महान् गुणोंके धारण करनेवालेको भगवान कहते हैं। जिनके केवलज्ञान प्रकट हो चुका है, उनको केवली कहते हैं । जिनके चार घातियाकर्म नष्ट हो चुके हैं, उनको अर्हन् कहते हैं, उन्होंने अपनी दिव्यध्वनिके द्वारा जो मोक्षमार्गका तथा उसके विषयभूत तत्त्वोंका उपदेश दिया है, उसको श्रुत कहते हैं। इसके प्रकृतमें दो भेद हैं-अङ्ग और उपाङ्ग । अङ्गके बारह भेद हैं-आचाराङ्गादि । अङ्गोंसे शेष बचे हुए अक्षरोंके आश्रयसे अथवा अङ्गोंको ही उद्धृत करके इतर आचार्योंके द्वारा जिनकी रचना हुई है, उन शास्त्रोंको उपाङ्ग कहते हैं । दोनोंका समूहरूप श्रुत साङ्गोपाङ्ग कहा जाता है। ऋषि मुनि यति और अनगार इस तरह चार प्रकारके मुनियोंके समूहको अथवा मुनि आर्यिका श्रावक श्राविका इन चारोंके समूहको चातुर्वण्य सङ्घ कहते हैं। धर्म शब्दसे प्रकृतमें हिंसादि पाँच महापापोंके सर्वथा त्यागरूप महाव्रतोंके अनुष्ठानको कहते हैं । देवोंके चार भेद भवनवासी १--रेषणात्क्लेशराशीनामृषिमाहुर्मनीषिणः । ( यशस्तिलक) २-भग शब्दके अनेक अर्थ हैं, यथा-ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः श्रियः । वैराग्यस्यावबोधस्य षण्णांभग इतिस्मृतः॥ (धनंजय नाममाला) । ३-- भगवान्की दिव्यध्वनि छह छह घड़ीके लिये चार समयोंमें प्रकट हुआ करती है, यथा---पुव्वण्हे मज्झण्हे अवरण्हे मज्झिमाय रत्तीए । छच्छयघडियाणिग्गइ दिवझुणी कहइ सुत्तत्थे ॥ उसका स्वरूप इस प्रकार हैं-“यत्सर्वात्महितं न वर्णसहितं न स्पन्दितोटद्वयं नो वाञ्छा कलि" इत्यादि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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