________________
३१२
रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
[ षष्ठोऽध्यायः
आदि पहले बता चुके हैं । इन सबके या इनमें से किसी के भी अवर्णवाद करने से दर्शनमोहकर्मका आस्रव हुआ करता है । असद्भूत दोषों का आरोपण करने को अवर्णवाद कहते हैं । क्रमानुसार चारित्रमोहकर्मके बन्धके कारणों को बताते हैं:
सूत्र -- कषायोदयात्तीव्रात्मपरिणामश्चारित्रमोहस्य ||१५||
भाष्यम् - कषायोदयात्तीव्रात्मपरिणामश्चारित्रमोहस्यास्रवो भवति ॥
अर्थ — कषायके उदयसे जो आत्मा के तीव्र परिणाम होते हैं, उनसे चारित्रमोहकर्मका आस्रव होता है । भावार्थ- - राग द्वेष अथवा क्रोध मान माया लोभके वशीभूत होकर कभी कभी जीवके ऐसे ऐसे परिणाम हो जाते हैं, कि जिनसे वह धर्मको या उसके साधनों को भी नष्ट करने लगता है, या उसके साधनमें अन्तराय उत्पन्न कर देता है, व्रती पुरुषोंको व्रतोंके पालनमें शिथिल बना देता है, अनर्थ या मद्यपान मांसभक्षण सरीखे महान् पापों का भी समर्थन करने लगता है । ऐसे ऐसे काम करनेमें प्रवृत्त करानेवाले भाव ही तीघ्र परिणाम कहे जाते हैं । इनके होनेपर चारित्रमोहकर्मका बन्ध हुआ करता है ।
मोहकर्मके अनन्तर आयुकर्म है । उसके चार भेद हैं । जिनमें से क्रमानुसार पहले नरक आयु के कारणों को बतानेके लिये सूत्र कहते हैं:
सूत्र - - बह्वारम्भपरिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः ॥ १६॥
भाष्यम् - बह्वारम्भता बहुपरिग्रहता च नारकस्यायुष आस्रवो भवति । अर्थ ---बहुत आरम्भ करना और बहुत परिग्रह धारण करना, इससे नरक आयुका आस्रव हुआ करता है ।
भावार्थ- - बहुत्व दो प्रकारका होता है - संख्यारूप और वैपुल्यरूप । प्रकृत में कोई विशेष उल्लेख नहीं है, अतएव दोनों प्रकारका लिया जा सकता है । " ये मेरा है " इस तरह के ममकाररूप संकल्पको परिग्रह कहते हैं, और इस तरहके संकल्पवश अनेक भोगोपभोग सामग्री के इकट्ठे करने या उसके साधनों में प्रवृत्त होनेको आरम्भ कहते हैं, इनकी अत्यधिकता नरकाके बंधका कारण है ।
तिर्यगायके बंधके कारणों को बताते हैं:
सूत्र - माया तैर्यग्योनस्य ॥ १७ ॥
भाष्यम् -- माया तैर्यग्योनस्यास्त्रवो भवति ।
अर्थ- - मायाचार करना तैर्यग्योन आयुके बंधका कारण हुआ करता है मनुष्य आयुके आस्रवको बताते हैं:
1
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org