________________
रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
[ षष्ठोऽध्यायः
भावार्थ - पीड़ारूप परिणामको अथवा जिसके होनेपर सुख शान्तिका अनुभव न होकर आकुलता या व्यग्रता उत्पन्न हो, उसको दुःख कहते हैं । इष्ट वस्तुका वियोग होनेपर जो चित्तमें मलिनता या खेद उत्पन्न होता है, उसको या चिन्ता करनेको शोक कहते हैं । किसी बुरे काम बन जानेपर जब निन्दा आदि होने लगे, या निन्दा न होनेपर भी उसके भय से पीछेसे क्रोधादिका विशेष उदय होनेपर तीन अनुशय - संताप के होनेको ताप कहते हैं । परितापपूर्वक इस तरहसे रोना या विलाप करना, कि जिसमें अश्रुपात होने लगे, उसको आक्रन्दन कहते हैं । दश प्रकार के प्राणोंमेंसे किसी के भी नष्ट करनेवाली प्रवृत्ति करना या किसीको भी नष्ट करना इसको वध कहते हैं । तथा ऐसा रूदन करना, कि जिसको सुनते ही दूसरे के हृदय में दया उत्पन्न हो जाय, उसको परिदेवन कहते हैं । ये छहों कारण तीन प्रकारसे हो सकते हैंस्वयं किये जाँय -- अपने में ही उत्पन्न हों, या परमें हों, अथवा दोनोंके मिश्ररूप हों । परन्तु तीनों - मेंसे किसीभी तरह के क्यों न हों, इनसे असातावेदनीयकर्मका बन्ध हुआ करता है । क्रमानुसार सद्वेद्यकर्मके बन्धके कारणोंको दिखाते हैं-
1
३१०
सूत्र - - भूतवत्यनुकम्पा दानं सरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमितिसद्यस्य ॥ १३ ॥
भाष्यम् -- सर्वभूतानुकम्पा अगारिष्वनगारिषुच व्रतिष्वनुकम्पाविशेषो दानं सरागसंयमः संयमा संयमोऽकामनिर्जरा बालतपो योगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यस्यास्रवा भवन्ति ॥
अर्थ — चारों ही गति के प्राणिमात्रपर दया या कृपा रखनेको सर्वभूतानुकम्पा कहते हैं । अगारी - गृहस्थ- श्रावक - देशयति और अनगार अर्थात् ऋषि मुनि यति आदि सम्पूर्ण परिग्रहके त्यागी इस तरह दोनों ही प्रकार के व्रतियोंपर विशेषरूपसे दया करनेको व्रत्यनुकम्पा कहते हैं । स्व और परका अनुग्रह करनेके लिये अपनी वस्तुका वितरण करना इसको दान कहते हैं । सरागसंयम नाम रागसहित संयमका है । पाँचों इन्द्रियों और छट्ठे मनको वश करना तथा छह काय जीवों की विराधना न करनेको संयम कहते हैं । मोक्षकी इच्छा से अथवा रागसहित इसके पालन करनेको सरागसंयम कहते हैं । प्रयोजनीभूत विषयोंके सिवाय सम्पूर्ण विषयोंके त्यागको देशEत या संयमासंयम कहते हैं । विना इच्छाके अथवा व्रत धारण किये विना ही पराधीनता आदिके वश भोग या उपभोगरूप विषयोंके छूट जानेपर संक्लेश परिणामोंका न होना अर्थात् समपरिणामों से कष्टों के सहन करने को अकामनिर्जरा कहते हैं । मिथ्यादृष्टियों के पंचाग्नि तप आदिको बालतप कहते हैं । शरीर और वचनकी क्रियाका लोकसम्मत रूपसे समीचीन अनुष्ठान करने को योग कहते हैं । प्रतीकारकी शक्ति रहते हुए भी दूसरे के आक्रोश गाली आदिको सुनकर क्रोध न करना, इसको क्षान्ति कहते हैं । लोभ कषायके छोड़ने अथवा स्नानादिके द्वारा होनेवाली पवित्रताको शौच कहते हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org