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________________ सूत्र ११-१२ । ] समाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ३०९ अर्थ-ज्ञान यद्वा ज्ञानवान् अथवा ज्ञानके साधनोंका प्रदोष निह्नव मात्सर्य अन्तराय आसादन और उपघात ज्ञानावरणकर्मका आस्रव होता है । अर्थात् इन कारणोंसे ज्ञानावरणकर्म बन्धको प्राप्त हुआ करता है। इसी प्रकार दर्शनावरणकर्मके विषयमें समझना चाहिये। भावार्थ-प्रदोषादिक छह कारण ऐसे हैं, कि जिनसे ज्ञानावरण और दर्शनावरणकर्मका बन्ध हुआ करता है । ये छह यदि ज्ञान ज्ञानवान् और ज्ञानके साधनोंके विषयमें हों, तो ज्ञानावरणके बन्धके कारण होते हैं, और दर्शन द्रष्टा तथा उसके साधनोंके विषयमें हों, तो दर्शनावरणके बन्धके कारण हुआ करते हैं। ___तत्त्वज्ञानकी प्रशस्त कथनीको सुनकर भी उसकी प्रशंसा न करने या द्वेषवश मौन धारण करलेने आदि दूषित परिणामोंको प्रदोष कहते हैं । ज्ञानके छिपानेको निह्नव कहते हैं-जैसे कि किसी बुभुत्सुके पूछनेपर पूछे हुए तत्त्वका स्वरूप मालूम होनेपर भी कह देना, कि " मैं नहीं जानता" । ये भी पढ़ जायगा तो मेरे बराबर हो जायगा, और फिर मेरी कीर्ति कम हो जायगी, इत्यादि दुरभिप्रायसे किसीको पढ़ाना नहीं, और यदि कोई पढ़ता हो, तो उससे डाह करना आदि मात्सर्य है । ज्ञानाभ्यासमें विघ्न करना, पुस्तक फाड़ देना, अध्यापकसे लड़ाई झगड़ा करके उसको हटा देना, स्थानका विच्छेद कर देना, जिससे ज्ञानका प्रसार होता हो उसका विरोध करना, आदि अन्तराय कहा जाता है, दूसरेके द्वारा प्रकाशित होते हुए ज्ञानके रोक देनेको आसादन कहते हैं, और प्रशस्त ज्ञानमें भी दूषण लगा देनेको उपघात कहते हैं। ___ इन छह कारणोंका स्वरूप यहाँपर ज्ञानके सम्बन्धको लेकर बताया गया है, इसी प्रकार दर्शनके सम्बन्धसे भी छहोंका स्वरूप समझ लेना चाहिये । ज्ञानावरण और दर्शनावरणके अनन्तर वेदनीयकर्मके बन्धके कारणोंको बताना चाहिये। वेदनीयकर्मके दो भेद हैं-असाता और साता । अतएव इनमेंसे क्रमानुसार पहले असद्वेद्य बंधके कारणोंको बताते हैं . सूत्र-दुःखशोकतापानन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थानान्यसदेद्यस्य ॥ १२ ॥ भाष्यम्-दुःखं शोकस्ताप आक्रन्दनं बधः परिदेवनमित्यात्मसंस्थानि परस्य क्रियमाणान्युभयोश्च क्रियमाणान्यसद्वेद्यस्यास्त्रवा भवन्तीति। अर्थ-दुःख शोक ताप आक्रन्दन वध और परिदेवन ये छह कारण आत्मसंस्थ हों, अपने होनेवाले हों, या परमें किये गये हों, अथवा दोनोंमें किये जाँय असद्वेद्यकर्मके आस्त्रव हुआ करते हैं । अर्थात् इन कारणोंके निमित्तसे असाता वेदनीयकर्मका बंध हुआ करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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