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________________ ३०८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ षष्ठोऽध्यायः उपकरणादिको उष्ण पीछी आदिसे अथवा उष्ण स्पर्शयुक्त उपकरणादिकोंको शीत पीछी आदिसे शोधनेको उपकरणसंयोजन कहते हैं । निसर्ग नाम स्वभावका है । शरीर वचन और मनकी जैसी कुछ स्वभावसे ही प्रवृत्ति होती है, उसके विरुद्ध दूषित रीतिसे उनके प्रवर्तानेको कायनिसर्गाधिकरण वाङ्निसर्गाधिकरण और मनोनिसर्गाधिकरण कहते हैं । यद्यपि ये अजीवाधिकरण भी जीवके द्वारा ही निष्पन्न होते हैं, परन्तु इनमें बाह्य द्रव्यक्रियाकी प्रधानता है, और उससे असंबद्ध भी रहते हैं, अतएव इनको द्रव्याधिकरण या अनीवाधिकरण कहते हैं । जीवाधिकरण जीवपर्यायरूप ही हैं । यह दोनोंमें अन्तर है। भाष्यम्-अत्राह उक्तं भवता सकषायाकषाययोर्योगः साम्परायिकेर्यापथयोरास्रव इति । सांपरायिकं चाष्टविधं वक्ष्यते । तत् किं सर्वस्याविशिष्ट आस्रव आहोस्वित्प्रतिविशेषोऽस्तीति । अत्रोच्यते-सत्यपि योगत्वाविशेषे प्रकृति कृति प्राप्यास्रवविशेषो भवति। तद्यथा अर्थ-प्रश्न-सामान्यतया आस्रवके भेदोंको बताते हुए आपने कहा है, कि सकषाय जीवके योगको साम्परायिकआस्त्रव और अकषाय जीवके योगको ईयोपथआस्रव कहते हैं। साम्परायिकआस्रव आठ प्रकारका है, ऐसा आगे चलकर कहेंगे। सो क्या वह सबके एकसा ही होता है ? अथवा व्यक्तिभेदके अनुसार उसमें कुछ विशेषता भी है ? उत्तर-यद्यपि योगत्व सबमें समानरूपसे ही रहता है, फिर भी प्रकृतिबंधरूप कर्मोंको पाकर उस आस्रवके अनेक भेद भी हो जाते हैं। ___ भावार्थ-सामान्य दृष्टिसे देखा जाय, तो सभी योग समान हैं । परन्तु विशेष दृष्टिसे देखा जाय, तो उसके अनेक उत्तरभेद भी होते हैं । क्योंकि वह अनेक कर्म प्रकृतियोंके बन्धमें कारण है। जहाँ कार्यभेद है, वहाँ कारणभेद भी रहता ही है । कर्मोंका बंध सामान्यतया चार प्रकारका है-प्रकृति स्थिति अनुभाग और प्रदेश । इनमेंसे प्रकृतिबंध ज्ञानावरणादिके भेदसे आठ प्रकारका हैं । आस्रवके विशेष भेदोंको दिखानेके लिये आगे क्रमसे आठों प्रकृतियोंके कारणोंको बताते हैं। उनमेंसे सबसे पहले ज्ञानावरण और दर्शनावरणकर्मके कारणभूत आस्रवके विशेष भेदोंको दिखानेवाला सूत्र कहते हैं। सूत्र-तत्पदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाताज्ञानदर्शनावरणयोः ॥ ११ ॥ भाष्यम्-आस्रवो ज्ञानस्य ज्ञानवतां ज्ञानसाधनानां च प्रदोषो निह्नवो मात्सर्यमन्तराय आसादन उपघात इति ज्ञानावरणास्त्रवा भवन्ति । तेहि ज्ञानावरणं कर्म बध्यते । एवमेव दर्शनावरणस्येति ।। १-अध्याप ६ सूत्र ५। २-अध्याय ६ सूत्र २६ । ३-इनका स्वरूप आगे चलकर दिखाया जायगा। ४-जो कि आगेके सूत्रोंसे मालूम होंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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