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________________ ३०६ रायचन्द्र जैन शास्त्रमालायाम् [ षष्ठोऽध्यायः कायसंरम्भ मानानुमतकायसंरम्भ मायानुमतकायसंरम्भ लोभानुमतकायसंरम्भ । इस प्रकार काययोगकी अपेक्षा संरम्भके भेद गिनाये, इसी तरह वचनयोग और मनोयोगकी अपेक्षा से भी संरम्भके भेद समझ लेने चाहिये, और संरम्भके समान ही समारम्भ तथा आरम्भके विकल्प भी घटित कर लेने चाहिये । इस प्रकारसे जीवाधिकरणके संक्षेपसे मूलमें तीन भेद जो बताये थे, उनमेंसे एकके ३६ विकल्प होते हैं। तीनों भेदोंके सम्पूर्ण विकल्प मिलकर १०८ होते हैं । योग तीन प्रकारका है । उनमेंसे जो केवल सकषाय हो, उसको संरम्भ कहते हैं, और जो परितापना - पीड़ा देने आदिके द्वारा प्रवृत्त हो, उसको समारम्भ कहते हैं, तथा प्राणिवधरूप प्रवृत्तिको आरम्भ कहते हैं । T भावार्थ --प्रमादी पुरुषको प्राणव्यपरोपण आदि कर्म करनेके विषय में जो आवेश प्राप्त होता है, उसको संरम्भ कहते हैं । उस क्रिया के साधनोंका अभ्यास करनेको समारम्भ कहते हैं । तथा उस क्रियाकी प्रथम प्रवृत्तिको आरम्भ कहते हैं । ये तीनों भाव मन वचन और काय इन तीनोंके ही द्वारा हो सकते हैं । अतएव तीनोंका परस्परमें गुणा करनेपर ९ भंग होते हैं। तथा ये नौ हू भंग कृत कारित और अनुमोदनों इस तरह तीनों प्रकार से संभव हैं । अतएव को ३ से गुणा करनेपर २७ भंग होते हैं । ये सत्ताईसों भंग क्रोधादि चारों कषायों के द्वारा हुआ करते हैं । अतएव २७ को ४ से गुणा करनेपर १०८ भंग होते हैं । अथवा हिंसादिरूप प्रवृत्ति मन वचन कायके भेदसे तीन प्रकारकी है, और वह तीन तरहसे - कृत कारित अनुमोदना के द्वारा हो सकती है, अतएव ३ का ३ से गुणा करनेपर ९ भंग होते हैं । तथा ये नौ हू भंग चारों कषायसे होनेके कारण ९ को ४ से गुणा करनेपर ३६ भंग होते हैं । इस तरह ३६ भंग संरम्भके ३६ समारम्भके और ३६ आरम्भके हैं। तीनोंके मिलकर १०८ विकल्प होते हैं । ये ही जीवाधिकरणके १०८ भेद हैं । तीव्र मंद आदि भावोंकी अपेक्षा इनके भी उत्तरभेद अनेक - असंख्यात हो सकते हैं ! 1 भाष्यम् - अत्राह - अथाजीवाधिकरणं किमिति ? अत्रोच्यते अर्थ- प्रश्न – साम्परायिकआस्रव के भेदोंमेंसे जीवाधिकारणके भेद आपने गिनाये, परन्तु अधिकरणका दूसरा भेद जो अजीवरूप बताया था, उसके भेद अभीतक नहीं बताये और न उसका स्वरूप ही अभीतक मालम हुआ है । अतएव कहिये कि अजीवाधिकरण शब्दसे क्या समझें, और उसके कितने भेद हैं ? इस प्रश्नका उत्तर देनेके लिये ही आगेका सूत्र कहते हैं— १ हिंसादि कर्मको स्वयं करना कृत, दूसरेसे कराना कारित, दूसरेके द्वारा किये गयेकी प्रशंसा करना अनुमोदना है । २ - अर्थात् जीवकी इस तरहसे १०८ भेदरूप प्रवृत्ति हमेशा रहा करती है । इन साम्परायिकआस्रवों के द्वारा कर्मका बंध भी हमेशा हुआ करता हैं । इन १०८ प्रकारोंसे नित्य बँधनेवाले कर्मों की निरृत्तिके लिये ही १०८ मनका की माला फेरी जाती है, यह पापके संवर और निर्जराका एक उपाय है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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