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________________ ३०४. रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ षष्ठोऽध्यायः | अधिकरण कहते हैं | ये कारण सब जीवोंके एकसे नहीं हुआ करते । अतएव इन कारणों के तारतम्यसे आस्रवमें तारतम्य और आस्रव के तारतम्यसे बन्धमें भी तारतम्य हुआ करता है । भाष्यम् - अत्राह - तीव्रमन्दादयो भावा लोकप्रतीताः, वीर्ये च जीवस्य क्षायोपशमिकः क्षायिको वा भाव इत्युक्तम् । अथाधिकरणं किमिति ? अत्रोच्यते अर्थ - प्रश्न - तीव्रभाव मन्दभाव ज्ञातभाव और अज्ञातभाव लोकमें प्रसिद्ध हैं । अतएव इनका अर्थ स्वयं समझमें आ सकता है - इनकी व्याख्या की आवश्यकता नहीं है । तथा वीर्य शब्दका अर्थ पहले बताया ही जा चुका है, कि वह वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशम अथवा क्षयसे उत्पन्न होनेवाला भाव है । किन्तु अधिकरण शब्दका अर्थ अप्रसिद्ध है । लोकमें उसका सामान्यतया अर्थ आधार होता है, और कोई विशेष अर्थ आपने अभीतक बताया नहीं है, अतएव कहिये, कि इस प्रकरणमें अधिकरण शब्दसे क्या समझें ? इसका उत्तर देने के लिये ही आगेका सूत्र कहते हैं - सूत्र -- अधिकरणं जीवाजीवाः ॥ ८ ॥ भाष्यम् - अधिकरणं द्विविधम् । - द्रव्याधिकरणं भावाधिकरणं च । तत्र द्रव्याधिकरणं छेदनभेदनादि शस्त्रं च दशविधम् । भावाधिकरणमष्टोत्तरशतविधम् । एतदुभयं जीवाधिकरणमजीवाधिकरणं च ॥ तत्र अर्थ - अधिकरण के दो भेद हैं- १ द्रव्याधिकरण २ भावाधिकरण | छेदन भेदन आदि करनेको अथवा दश प्रकारके शस्त्रोंको द्रव्याधिकरण कहते हैं । भावाधिकरणके एक सौ आठ भेद हैं । इन दोनों को ही जीवाधिकरण और अजीवाधिकरण भी कहते हैं । 1 1 भावार्थ - प्रयोजनके आश्रयको अधिकरण कहते हैं । वे दो ही प्रकारके हो सकते हैं। या तो जीवरूप या अजीवरूप । सामान्य जीव द्रव्य या अजीव द्रव्य हिंसादिका उपकरण होनेसे साम्परायिकआस्रवका कारण है, और इसलिये उसीको जीवाधिकरण या अजीवाधि - करण समझा जाय, सो बात नहीं है । यदि ये दो सामान्य द्रव्य अधिकरणरूपसे विवक्षित होते, तो सूत्र में द्विवचनका प्रयोग होता । परन्तु प्रकृतमें बहुवचनका प्रयोग किया गया है इससे स्पष्ट होता है कि - पर्यायकी अपेक्षासे ही अधिकरणको बताना अभीष्ट है । क्योंकि पर्यायशन्य द्रव्य अधिकरण नहीं हो सकता । वह जब अधिकरण होगा, तो किसी न किसी पर्याय से युक्त ही होगा, जो जीवके भाव हिंसादिके उपकरण या आश्रय होते हैं, उनको जीवाधिकरण और जो बाह्य अजीव द्रव्य रूप होते हैं, उनको अजीवाधिकरण कहते हैं । 1 दो प्रकारके अधिकरणोंमें जो द्रव्याधिकरण या अजीवाधिकरण है, वह हिंसा आदिरूप अथवा उसके साधनस्वरूप है, और जीवाधिकरण जीवके परिणामरूप है, यह ठीक १ - - अध्याय २ सूत्र ४-५ २ -- इनका स्वरूप आगे के सूत्रमें बतायेंगे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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