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________________ ३०३ सूत्र ६-७ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । आदिमें वंचना (उगाई) करनेको मायाक्रिया कहते हैं । मिथ्यादर्शन क्रियाके करनेमें प्रवृत्त जीवको प्रशंसा आदिके द्वारा दृढ़ करनेको मिथ्यादर्शनक्रिया कहते हैं । संयमका घात करनेवाले कर्म-चारित्रमोहके उदयसे खोटी क्रियाओंके न छोड़नेको अप्रत्याख्यानक्रिया कहते हैं। ये जो साम्परायिकआस्रवके भेद गिनाये हैं, उनमें कोई शुभ हैं और कोई अशुभ । शुभसे पुण्यका और अशुभसे पापका बंध होता है, यह बात पहले कहे अनुसार अच्छी तरह घटित कर लेनी चाहिये । यहाँपर यह शंका हो सकती है, कि कर्म मूलमें आठ हैं, उनके उत्तरभेद १४८ हैं। तथा विशेष दृष्टिसे उनके असंख्यात भेद भी बताये हैं। परन्तु यहाँपर साम्परायिकआस्रवके ३९ भेद ही गिनाये हैं। सो इनका कार्यकारण सम्बन्ध किस तरह बनता है ? साम्परायिकआस्रवका एक एक भेद अनेक अनेक कर्मोंके बन्धके लिये कारण है ? अथवा इनके भी किन्हीं कारणोंसे अनेक उत्तरभेद होते हैं ? इस शंकाको दूर करनेके लिये साम्परायिकआस्रवके भेदोंमें भी जिन जिन कारणोंसे विशेषता आती है, उनको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं:सूत्र-तीव्रमंदज्ञाताज्ञातभाववीर्याधिकरणविशेषेभ्यस्तविशेषः ॥७॥ भाष्यम्-साम्परायिकास्रवाणामेषामेकोनचत्वारिंशत्साम्परायिकाणां तीव्रभावात् मन्दभावाज्ज्ञातभावादज्ञातभावाद्वीर्यविशेषाधिकरणविशेषाच्च विशेषो भवति । लघुर्लघु तरोलघुतमस्तीवस्तीव्रतरस्तीव्रतम इति । तद्विशेषाच्च बन्धविशेषो भवति ॥ अर्थ-साम्परायिकबन्धमें जो कारण हैं, ऐसे उपर्युक्त इन उन्तालीस साम्परायिकआस्रवोंके भी तीवभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव और वीर्य तथा अधिकरणकी विशेषतासे विशेष भेद हुआ करते हैं, अतएव वह कहीं लघु कहीं लघुतर कहीं लघुतम तथा कहीं इसके विपरीत तीव्र तीव्रतर तीव्रतम हुआ करता है, और इसीकी विशेषतासे बन्धनमें भी विशेषता होती है। . भावार्थ-सकषाय जीवोंके अव्रत आदि स्वरूप जो मन वचन कायकी प्रवृत्ति अथवा योगप्रवृत्ति हुआ करती है, वह सब जीवोंके एकसी नहीं हुआ करती। उसमें परस्पर अनेकप्रकारसे तारतम्य है । इस तारतम्यके कारण तीव्रादिक भाव और वीर्य तथा अधिकरण हैं । क्रोधादि कषायोंके उद्रेकरूप परिणामोंको तीव्रभाव और इससे विपरीत होनेवाले भावोंको मन्दभाव कहते हैं । जाननेको अथवा जानकर प्रवृत्ति करनेको ज्ञातभाव और इसके विपरीत अज्ञान को अथवा मद या प्रमादके वशीभूत होकर विना सोचे समझे किसी कामके कर डालने को अज्ञातनाव कहते हैं । वस्तुकी सामर्थ्यको वीर्य तथा प्रयोजनके आश्रयभूत पदार्थको १.-.." द्वन्द्वादी द्वन्द्वान्ते च श्रूयमाणं पदं प्रत्येक परिसमाप्यते” ऐसा नियम है । तदनुसार तीव्रादि चारोंके साथ भाव शब्दको जोड़लेना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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