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________________ ३०२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ षष्ठोऽध्यायः श्रोत्र । परन्तु प्रकृतमें इन्द्रिय शब्दसे प्रमादयुक्त जीवकी ही इन्द्रियोंको समझना चाहिये । यथा— सम्यक्त्वक्रिया, मिथ्यात्वक्रिया, प्रयोगक्रिया, समादानक्रिया, और ईर्यापथक्रिया ये पाँच, तथा कायक्रिया, अधिकरणक्रिया, प्रादोषिकीक्रिया, परितापनक्रिया, और प्राणातिपातक्रिया ये पाँच, दर्शनक्रिया, स्पर्शनक्रिया, प्रत्ययक्रिया, समंतानुपातक्रिया, और अनाभोगक्रिया ये पाँच, स्वहस्तक्रिया, निसर्गक्रिया, विदारणक्रिया, आनयनक्रिया, और अनवकाङ्क्षाकिया ये पाँच, और आरम्भक्रिया, परिग्रहक्रिया, मायाक्रिया, मिथ्यादर्शनक्रिया, तथा अप्रत्याख्यानक्रिया ये पाँच, इस तरह पाँच पंचकोंकी मिलाकर कुल पच्चीस क्रिया होती हैं । जोकि साम्परायिककर्मके बन्धकारण हैं । 1 भावार्थ — देव गुरु शास्त्रकी पूजा स्तुति आदि ऐसे कार्य करना, जोकि सम्यक्त्वकी उत्पत्ति वृद्धि आदिमें कारण हैं, उनको सम्यक्त्वक्रिया कहते हैं । इसके विपरीत कुदेव कुगुरु कुशास्त्रकी पूजा स्तुति प्रतिष्ठा आदि करना मिथ्यात्वक्रिया है । किसी भी अच्छे या बुरे कामको सिद्ध करनेके लिये शरीरादिके द्वारा दूसरेको गमन आदि करनेमें प्रवृत्त करना इसको प्रयोगक्रिया कहते हैं । संयमीकी असंयमकी तरफ चारित्रका घात करनेवाली अभिमुखता हो जानेको समादानक्रिया कहते हैं । ईर्यापथकर्मको प्राप्त करनेके लिये जो तन्निमित्तक क्रिया की जाती है, उसको ईर्याथक्रिया कहते हैं । दोषयुक्त पुरुषके उद्यमको कायिकीक्रिया कहते हैं हिंसाके उपकरणों को देना अधिकरणक्रिया है । क्रोधके आवेशमें आना प्रादोषिकीक्रिया है । दु:खोंके उत्पन्न करनेमें प्रवृत्त होना परितापनक्रिया है । आयु इन्द्रिय आदि प्राणोंके दियुक्त करनेको प्राणातिपातक्रिया कहते हैं । प्रमादी पुरुषका रागके वशीभूत होकर रमणीयरूपको देखनेका जो भाव होता है, उसको दर्शनक्रिया कहते हैं । इसी प्रकार स्पर्श योग्य वस्तु के स्पर्श करनेकी अभिलाषा होना स्पर्शनक्रिया है । प्राणिघातके अपूर्व उपकरण या अधिकरणकी प्रवृत्ति करना प्रत्ययक्रिया है । जहाँपर स्त्री पुरुष या पशु आदि बैठते हैं, उस जगह मलोत्सर्ग करनेको समंतानुपातक्रिया कहते हैं । विना देखी शोधी भूमिपर शरीरादिके रखनेको अनाभोगक्रिया कहते हैं। जो क्रिया दूसरे के द्वारा की जानी चाहिये, उसको स्वयं अपने हाथसे करना स्वहस्तक्रिया है । पाप-प्रवृत्तिमें दूसरों को उत्साहित करने अथवा आलस्यके वश प्रशस्त कर्म न करने को निसर्गक्रिया कहते हैं । किसीके किये गये सावद्यकर्मको प्रकाशित कर देना विदारणक्रिया है । आवश्यक आदिके विषयमें अर्हतदेवकी जैसी आज्ञा है, उसका अन्यथा निरूपण करनेको आनयनक्रिया कहते हैं । मूर्खता या आलस्यके वश आगमोक्त विधिमें अनादर करनेको अनाकाङ्क्षाक्रिया कहते हैं । छेदन भेदन आदि क्रिया करनेमें चित्तके आसक्त होनेको अथवा दूसरा कोई उस क्रियाको करे, तो हर्ष माननेको आरम्भक्रिया कहते हैं । चेतन अचेतन परिग्रहके न छूटनेके लिये प्रयत्न करनेको परिग्रहक्रिया कहते हैं । ज्ञान दर्शन 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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