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सूत्र ४-६-६ ।] समाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
३०१ पड़ा करती है । कर्मोकी जघन्य और उत्कृष्ट जो स्थिति बताई है, उसमें से जिसके जितनी संभव हो, उतनी ही स्थिति कषायाध्यवसायस्थानके अनुसार पड़ जाती है। जैसे कि आई चर्म आदि किसी भी गीली वस्तुपर पड़ी हुई धूलि उससे चिपक जाती हैं। किन्तु जो अकषाय जीव हैं, उनका योग भी कषाय रहित हुआ करता है, अतएव वह स्थितिबंधका कारण नहीं हुआ करता । उसके द्वारा जो कर्म आते हैं, उनमें एक समयसे अधिक स्थिति नहीं पडती । जैसे कि किसी शुष्क दीवालपर पत्थर आदि फेंका जाय, तो वह उससे चिपकता नहीं, किन्तु उसी समय गिर पड़ता है । इस प्रकार जो जीव कषायरहित होते हैं, उनके योगके निमितसे कर्म आते अवश्य हैं । परन्त उनमें स्थिति नहीं पड़ती। वे आत्म-लाभको प्राप्त करके ही निर्जीर्ण हो जाते हैं। इस स्वामिभेदके कारण फलमें भी भेद करनेवाले आस्रवोंके नाम भी क्रमसे भिन्न भिन्न हैं। सकषाय जीवके आस्रवको सांपरायिकआस्रव और अकषायजीवके आस्त्रकको ईयापथआस्रव कहते हैं।
उक्त दो भेदों से पहले साम्परायिकआस्रवके भेद गिनाते हैं
सूत्र-अव्रतकषायन्द्रियक्रियाःपञ्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः॥६॥
भाष्यम्-पूर्वस्येति सूत्रक्रमप्रामाण्यात्साम्परायिकस्याह । साम्परायिकस्यास्रवभेदाः पञ्च चत्वारः पञ्च पञ्चविशतिरिति भवन्ति । पञ्च हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहाः । “प्रमत्तयो. गात्पाणव्यपरोपणं हिंसा, " इत्येवमादयो वक्ष्यन्ते । चत्वारः क्रोधमानमायालोभाः अनन्तानुबन्ध्यादयो वक्ष्यन्ते । पञ्च प्रमत्तस्येन्द्रियाणि । पश्चविंशतिः क्रिया। तत्रेमे क्रियाप्रत्यया यथासङ्ख्यं प्रत्येतव्याः। तद्यथा-सम्यक्त्वमिथ्यात्वप्रयोगसमादानेर्यापथाः, कायाधिकरणप्रदोपरितापनप्राणातिपाताः, दर्शनस्पर्शनप्रत्ययसमन्तानुपातानाभोगाः, स्वहस्तनिसर्गविदा. रणानयनानवकाङ्क्षा, आरम्भपरिग्रहमायामिथ्यादर्शनाप्रत्यारव्यानक्रिया इति ॥
अर्थ--सूत्रमें जिस क्रमसे पाठ पाया जाता है, उसके अनुसार पहला-साम्परायिकआस्रव है। उसके उत्तरभेद ३९ हैं। यथा-पाँच अवत, चार कषाय, पाँच इन्द्रियाँ
और पञ्चीस क्रिया । हिंसा झूठ चोरी कुशील और परिग्रह ये पाँच अव्रत हैं। इनमेंसे हिंसाका लक्षण इस प्रकार है-“प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा"। अर्थात् प्रमादके योगसे • जो प्राणोंका व्यपरोपण-विराधन होता है, उसको हिंसा कहते हैं। इसका स्वरूप आगे चलकर लिखेंगे । इसके साथ ही झूठ चोरी आदिका भी लक्षण उसी प्रकरणमें लिखा जायगा । कषाय चार प्रकारकी है-क्रोध मान माया और लोभ । इनके भी अनन्तानबन्धी आदि जो उत्तरभेद हैं, उनका स्वरूप आगे चलकर बतायेंगे । इन्द्रियाँ पाँच हैं-स्पर्शन रसन घ्राण चक्षु और
१-कर्म मिथ्याहगादीनामाईचर्मणि रेणुवत् । कषायपिच्छिले जीवे स्थितिमाप्नुवदुच्यते । २ ईयाँ योगगतिः सैव यथा यस्य तदुच्यते । कर्मथ्यापथमस्यास्तु शुष्ककुडयेऽश्मवच्चिरम् ॥
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