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सूत्र ४१-४२-४३-४ ४ । सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । उसकी विशेषता दिखाने लिये ही उल्लेख किया है । वह दिखाता है, कि पुद्गलोंमें सत्त्व द्रव्यत्व मूर्तत्व आदि अनादि परिणाम भी पाये जाते हैं। यदि कोई यह शंका करे, कि जब रूपी द्रव्योंमें अनादि परिणाम भी रहता है, तो अरूपी द्रव्योंमें आदिमान् परिणाम भी क्यों नहीं पाया जा सकता ? तो वह ठीक नहीं हैं, क्योंकि ऐसा भी माना ही है । जैसे जीवमें योग
और उपयोगरूप आदिमान् परिणाम होता है, उसी प्रकार अन्य धर्मादिक द्रव्यों में भी उसके रहनेको कौन रोक सकता है।
ऊपर परिणामके दो भेद गिनाये हैं-अनादि और आदिमान् । उनमेंसे केवल अमूर्त द्रव्यका उद्देश करके उनमें आदिमान् परिणामको भी दिखानेके अभिप्रायसे आगे सूत्र कहते हैं।
सूत्र-योगोपयोगी जीवेषु ॥ ४४ ॥ भाष्यम्-जीवेष्वरूपिष्वपि सत्सु योगोपयोगौ परिणामावादिमन्तौ भवतः। स च पंचदशभेदः । स च द्वादशविधः । तत्रोपयोगः पूर्वोक्तः। योगस्तु परस्ताद् वक्ष्यते ॥
इति श्रीतत्त्वार्थसंग्रहे अर्हत्प्रवचने पञ्चमोऽध्यायः॥
अर्थ-जीव यद्यपि अरूपी हैं, तो भी उनमें योग और उपयोग रूप आदिमान् परिणाम हुआ करते हैं । योगके पंद्रह भेद हैं, और उपयोग बारह प्रकारका है। इनमें से उपयोगका स्वरूप पहले बताया जा चुका है, और योगका वर्णन औगे चलकर करेंगे।
भावार्थ-योग दो प्रकारका है-भावयोग और द्रव्ययोग । आत्माकी शक्ति विशेषको भावयोग कहते हैं, और मन वचन कायके निमित्तसे आत्माके प्रदेशोंका जो परिस्पन्दन होता है, उसको द्रव्ययोग कहते हैं । प्रकृतमें योग शब्दसे द्रव्ययोगको ही समझना चाहिये । इसके पन्द्रह भेद हैं, यथा-औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग, और कार्मणकाययोग, इस प्रकार सात काययोग और चार वचनयोग-सत्य असत्य उभय और अनुभय, तथा चार मनोयोग-सत्य असत्य उभय और अनुभय । उपयोग बारह प्रकारका है । यथा-पाँच सम्यग्ज्ञानमति श्रुत अवधि मनःपर्यय और केवल, तीन मिथ्याज्ञान-कुमति कुश्रुत और विभङ्ग । तथा चार प्रकारका दर्शन, यथा-चक्षदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, और केवलदर्शन । इस प्रकार ये योग और उपयोग दोनों ही प्रकारके परिणाम आदिमान हैं । फिर भी अमूर्त जीवमें पाये जाते हैं। क्योंकि आत्माका इस तरहका परिणमन करनेका स्वभाव है । भाष्यकारने अपि शब्दका प्रयोग करके समानताका बोध कराया है। अर्थात्-जिस प्रकार अणु आदिकमें आदिमान् परिणाम होता है, उसी प्रकार जीवमें भी होता है ।
इस प्रकार तत्त्वार्थाधिगमभाष्यका पंचम अध्याय समाप्त हुआ।
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१-तु शब्दको समुच्चयार्थक माननेसे भी यह अर्थ प्रकट हो सकता है। २-अध्याय २ सत्र ८.९ । ३..-छठे अध्यायके प्रारम्भमें। ४.-पुग्गलविवाइदेहोदयेण मणवयणकायजुत्तस्स । जीवस्स आ ह सत्ती कम्माग मकारणं जोगो ॥ गो० जी० का० ॥ २१५॥
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