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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायांम् सूत्र - तद्भावः परिणामः ॥ ४१ ॥ भाष्यम् - धर्मादीनां द्रव्याणां यथोक्तानां च गुणानां स्वभावः स्वतत्त्वं परिणामः ॥ सद्विविधः । - २९६ अर्थ -- धर्म अधर्म आकाश पुद्गल जीव और काल इन पूर्वोक्त द्रव्योंके और उनके गुणोंके, जिनका कि लक्षण ऊपर बता चुके हैं, स्वभाव - स्वतत्त्वको परिणाम कहते हैं । भावार्थ - तत् शब्दसे छहों द्रव्य और उनके गुणों को समझना चाहिये । तथा भाव शब्दका अर्थ भवन - भूति - उत्पत्ति - आत्मलाभ या अवस्थान्तरको प्राप्त करना है । इसी को परिणाम कहते हैं। यह परिणाम द्रव्यसे या गुणसे सर्वथा भिन्न कोई वस्तु नहीं है, किन्तु उसीका स्वभाव है, अथवा स्व-निज तत्त्व ही है । क्योंकि द्रव्य ही अपने स्वरूपको न छोड़ता हुआ विशिष्ट अवस्थाको धारण किया करता है । जैसा कि लोकमें प्रत्यक्ष देखने में भी आता है यह परिणाम दो प्रकारका है — इसके दो भेद हैं । इन दो भेदों को बताने के लिये ही आगेका सूत्र कहते हैं: 1 -- आगेका सूत्र - अनादिरादिमांश्च ॥ ४२ ॥ भाष्यम् – तत्रानादिररूपिषु धर्माधर्माकाशजीवेष्विति ॥ अर्थ-धर्म अधर्म आकाश और जीव इन अरूपी द्रव्योंका परिणाम अनादि है' । रूपी - मूर्त पदार्थोंका परिणाम अनादि है, या आदिमान्, इस बातके बतानेके लिये कहते हैं- सूत्र [ पंचमोऽध्यायः सूत्र - रूपिष्वादिमान् ॥ ४३ ॥ भाष्यम् - रूपिषु तु द्रव्येषु आदिमान् परिणामोऽनेकविधः स्पर्शपरिणामादिरिति ॥ अर्थ – जिसमें रूप रस गन्ध स्पर्श पाया जाय, उसको रूपी कहते हैं । अर्थात् पुद्गल द्रव्यों में आदिमान् परिणाम पाया जाता है, और वह अनेक प्रकारका है । अनेक भेद स्पर्शपरिणामादिकी अपेक्षा समझने चाहिये । स्पर्शके आठ भेद हैं, रस पाँच प्रकारका है, गन्ध दो तरहका है, और वर्णके पाँच प्रकार हैं, सो पहले गिना चुके हैं । इन भेदों की अपेक्षा तथा तरतम भावकी अपेक्षा यह आदिमान् परिणाम अनेक प्रकारका है । भावार्थ — जन्म से लेकर विनाश पर्यन्त विशेषताको रखनेवाला और स्वरूप के सामान्यविशेष धर्मोके अधिकारी तद्भावको आदिमान् परिणाम कहते हैं । भाष्यकार ने “ तु " शब्दका Jain Education International १ - सूत्र में जो च शब्द पड़ा है, उससे कालका भी ग्रहण होता है । अर्थात् कालमें भी अनादि परिणाम होता है । तथा अरूपी द्रव्यों में अनादि परिणाम ही हो ऐसा नियम नहीं है । यह बात आगेके सूत्रकी व्याख्यासे मालूम हो जायगी, कि अरूपी द्रव्योंमें आदिमान् परिणाम भी होता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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