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________________ षष्ठोऽध्यायः । 1 इस ग्रन्थके प्रारम्भ में ही मोक्षमार्ग - रत्नत्रयके विषयभूत सात तत्त्व गिनाये थे । अब उनमें से क्रमानुसार तीसरे आस्रवतत्त्वका इस अध्यायमें वर्णन करेंगे । इसीके लिये भाष्यकार प्रथम सूत्रकी उत्पत्तिका कारण प्रकट करते हैं: भाष्यम् अत्राह-उक्ता जीवाजीवाः । अथास्त्रवः क इत्यास्त्रवप्रसिद्ध्यर्थमिदं प्रक्रम्यतेःअर्थ - प्रश्न - जीव और अजीवका वर्णन तो हुआ । अब यह कहिये, कि आस्रव किसको कहते हैं ? इसके उत्तर में आस्रवतत्त्वकी सिद्धिके लिये ही इस प्रकरणका प्रारम्भ करते हैं । भावार्थ- पहले अध्यायमें जीवादिक सात तत्त्व जो बताये थे, जिनके कि सम्बन्धसे हीं इस ग्रन्थका नाम तत्त्वार्थाधिगम रक्खा गया है, उनमें से पहले जीवतत्त्वका वर्णन आदिके चार अध्यायोंमें किया गया है, और दूसरे अजीवतत्त्वका व्याख्यान पाँचवें अध्यायमें हो चुका है । अब दोनोंके अनन्तर क्रमानुसार आस्रवतत्त्वका निरूपण करना आवश्यक है । जीवका कर्म साथ जो बंध होता है, उसके कारणको आस्रव कहते हैं । उसका स्वरूप क्या है ? इस बातको बताने के लिये सूत्र कहते हैं: सूत्र - कायवाङ्मनःकर्म योगः ॥ १ ॥ भाष्यम् -- कायिकं कर्म वाचिकं कर्म मानसं कर्म इत्येष त्रिविधो योगो भवति । स एकशो द्विविधः । शुभश्चाशुभश्च । तत्राशुभो हिंसास्तयाब्रह्मादीनि कायिकः, सावद्यानृतपरुषपिशुनादीनि वाचिकः, अभिध्याव्यापादेयसूयादीनि मानसः । अतो विपरीतः शुभ इति ॥ अर्थ - शरीर वचन और मनके द्वारा जो कर्म - क्रिया होती है, उसको योग कहते हैं । अतएव यह योग तीन प्रकारका हो जाता है - कायिक क्रियारूप, वाचिक क्रियारूप, और मानस क्रियारूप । इनमें भी प्रत्येकके दो दो भेद हैं- एक शुभ दूसरा अशुभ | हिंसा में प्रवृत्ति करना अथवा हिंसामय प्रवृत्ति करना, चोरी करना, कुशील (मैथुन) सेवन करना आदि अशुभ कायिक कर्म - अशुभ योग हैं। पापमय या पापोत्पादक वचन बोलनों, मिथ्या भाषण करना, मर्मभेदी आदि कठोर वचन बोलना, किसीकी चुगली बुराई आदि करना, इत्यादि अशुभ वाचिक कर्म - अशुभ वचनयोग हैं। दुर्ध्यान या खोटा चिन्तवन, किसीके मरने मारने का विचार, किसीको लाभ आदि होता हुआ देखकर मनमें उससे डाह करना - जलना, किसीके महान् और उत्तम गुणों में १ - हिंसा झूठ चोरी कुशील आदिका लक्षण आगे चलकर बतावेंगे । २ - हिंसा कर, अमुकको मार डालो चोरी कियाकर, इत्यादि पापमें प्रेरित करनेवाले सभी वचन सावद्य कहे जाते हैं । Jain Education International, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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