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________________ सूत्र ३६-३७।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २९३ __ अर्थ-शक्तिविशेषोंका ही नाम गुण है। परन्तु इनका लक्षण वाक्यके द्वारा वर्णन आगे चलकर " द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः" इस सूत्रके व्याख्यानके अवसरपर करेंगे । भावान्तर और संज्ञान्तरको पर्याय कहते हैं । ये दोनों जिसमें रहें, उसको द्रव्य कहते हैं । अथवा गुण और पर्याय जिसके हों या जिसमें हों, उसको गुणपर्यायवत्-द्रव्य समझना चाहिये । भावार्थ-द्रव्यका एक लक्षण कहा जा चुका है-" उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" फिर भी दूसरा लक्षण जो यह बताया है, उसका प्रयोजन द्रव्य और उसके धर्मोंका विशेष परिज्ञान कराना है। " गुणपर्यायवत् ' इसमें मतुप् प्रत्ययको देखकर अथवा 'गुणपर्याया अस्य सन्त्यस्मिन्वा' इसमें षष्ठी सप्तमी निर्देशको देखकर यह नहीं समझना चाहिये, कि गुण और पर्यायसे द्रव्य कोई सर्वथा भिन्न चीज है, जिसमें कि ये दोनों वस्तु रहती हैं, जैसे कि घड़े में पानी रहा करता है। क्योंकि अभिन्नमें भी मतुबादि प्रत्यय या षष्ठी आदि निर्देश हुआ करता है, जैसे कि यह वृक्ष सारवान् है, सोनेकी अंगूठी, इत्यादि । गुण और पर्याय ऐसा भेद कथन भी आगममें जो पाया जाता है वह भी व्यवहारनयकी अपेक्षा है । वास्तवमें देखा जाय, तो पर्याय और गुण एक ही हैं। द्रव्य की परिणतिविशेषको ही गुण अथवा पर्याय कहते हैं । जो परिणति द्रव्यसे युगपदवस्थायी-सहभावी है, उसको गुण और जो उससे अयुगपदवस्थायी—क्रमभावी है, उसको पर्याय कहते हैं। जैसे कि पुद्गलके रूप रस गंध स्पर्श आदि गुण हैं, और हरित पीत आदि तथा मधुर अम्ल आदि पर्याय हैं । पिंड घट कपाल आदि भी उसके पर्याय हैं। क्योंकि वे सहभावी नहीं हैं। एक संज्ञासे दूसरी संज्ञा होनेमें कारण एक अवस्थासे दूसरी अवस्थाका होना है, अतएव संज्ञान्तर और उसका निमित्त कारण भावान्तर दोनों पर्यायके ही स्वरूप हैं। __ इस प्रकार द्रव्यका लक्षण बताया । यहाँ तक उपरिनिर्दिष्ट धर्मादिक पाँच द्रव्योंका अनेक अपेक्षाओंसे वर्णन किया है। इसमें सबके उपकारका वर्णन करते हुए कालद्रव्यके उपकारका भी वर्णन किया है। परन्तु वह काल भी द्रव्य है, ऐसा अभी तक कहा नहीं है । अतएव यह शंका हो सकती है, कि वह पाँच द्रव्योंसे भिन्न कोई छट्ठा द्रव्य है, अथवा पाँचोंमें ही अन्तर्भूत है, या और कोई बात है । अतएव इस शंकाको दूर करनेके लिये ही आगेका सूत्र कहते हैं: १-" दो पजवे दुगुणिए लभति उ एगाओ दवाओ।" ( आवश्यकनियुक्ति गाथा ६४ ) तथा “ तं तह जाणाति जिणो, अपज्जवे जाणणा नत्थि।" [ आ० नि० गाथा १९४ ] एवं “दब्वप्पभवा य गुणा, न गुणप्पभवाई दव्वाइं।” ( आव० नि० गाथा १९३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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