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________________ २९२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम - [पंचमोऽध्यायः सूत्र-बन्धे समाधिको पारिणामिकौ ॥ ३६ ॥ भाष्यम्-बन्धे सति समगुणस्य समगुणः परिणामको भवति, अधिकगुणो हीनस्यति ॥ अर्थ-बन्ध होनेपर जो समान गुणवाला होता है, वह अपने समान गुणवालेका परिणामक हुआ करता है, और जो अधिक गुणवाला हुआ करता है, वह अपनेसे हीन गुणवालेका परिणामक हुआ करता है। ___ भावार्थ-कल्पना कीजिये, कि द्वि गण स्निग्धका और द्वि गुण रूक्षका परस्परमें संघट्ट हुआ। यहाँपर कदाचित् स्निग्ध अपने स्नेह गुणके द्वारा रूक्ष गुणको आत्मसात् करता है, तो कदा. चित् रूक्ष गुण अपने रूक्ष गुणके द्वारा सम गुणवाले स्निग्धको आत्मसात् कर सकता है। तथा जो अधिक गुणवाला होता है, वह अपनेसे हीनको अपनेरूप परणमा लेता है। जैसे कि त्रिगुण स्निग्ध अपनेसे हीन-एक गुणस्निग्धको अपनेरूप परणमा ले सकता है। ___भाष्यम्-अत्राह-उक्तं भवता द्रव्याणि जीवाश्चति । तत् किमुद्देशत एव द्रव्याणां प्रसिद्धिराहोस्विल्लक्षणतोऽपीति ? अत्रोच्यते-लक्षणतोऽपि प्रसिद्धिः तदुच्यतेः अर्थ-प्रश्न-आपने इसी अध्यायके प्रारम्भमें “ द्रव्याणि जीवाश्च ” इस सूत्रके द्वारा धर्म अधर्म आकाश पुद्गल और जीव इन पाँच द्रव्योंका या अस्तिकायोंका उल्लेख किया है, सो यह उल्लेख उद्देशमात्र ही है, अथवा लक्षणद्वारा भी है । अर्थात् उक्त द्रव्योंकी प्रसिद्धिस्वरूपका परिज्ञान सामान्यतया नाममात्रके द्वारा ही समझना चाहिये, अथवा इसके लिये कोई असाधारण लक्षण भी है ? उत्तर -लक्षणके द्वारा भी इन द्रव्योंकी प्रसिद्धि होती है। वह लक्षण क्या है, जिसके कि द्वारा उनका परिज्ञान हुआ करता है, इस बातको बतानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं: सूत्र-गुणपर्यायवद्र्व्य म् ॥ ३७ ॥ भाष्यम्-गुणान् लक्षणतो वक्ष्यामः। भावान्तरं संज्ञान्तरं च पर्यायः। तदुभयं यत्र विद्यते तद् द्रव्यम् । गुणपर्याया अस्य सन्त्यस्मिन् वा सन्तीति गुणपर्यायवत् । १-सम गुणका बन्ध होता नहीं, फिर न मालूम ऐसा कथन भाष्यकारने कैसे किया। इसी शंकाका उत्तर देते हुए टीकाकारने लिखा है कि-" गुणसाम्ये तु सदृशानां बन्धप्रतिषेध; । इमौ तु विसदृशावेको द्विगुणनिग्धोऽन्यो द्विगुणरूक्षः; स्नेहरूक्षयोश्च भिन्नजातीयत्वान्नास्ति सादृश्यम् ।” अर्थात् सजातीयमें समगुणवालके बन्धका निषेध है, न कि भिन्न जातीयमें । परन्तु बन्धका नियम दो गुण अधिकका है, और वह सजातीय विजातीय दोनोमें ही होता है, जैसा कि “ निद्धस्स निद्धेण दुआहिएण" आदि उक्त गाथाके द्वारा भी सिद्ध होता है । तदनुसार दो गुण अधिकका ही बंध होता है, चाहे वे बध्यमान दोनों पुद्गल, स्निग्ध स्निग्ध या रूक्ष रूक्ष हों, अथवा स्निग्ध रूक्ष हो । अतएव यह उदाहरण किस तरह दिया, या सम गुणकी परिणामकता किस तरह बताई, सो समझमें नहीं आती। २-" न जघन्यगुणानाम्" इस कथनके अनुसार एक गुणवालेका बंध नहीं होता, फिर भी यहाँपर उसका उल्लेख किया है, सो क्या आशय रखता है, कह नहीं सकते।३-नाममात्रकथनमुद्देशः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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