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सूत्र ३४-३५ । समाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
२९१ हुआ करता है। रूक्षका भी दो गुण अधिक रूक्षके साथ, और दो गुण अधिक रूक्षका रूक्षके साथ बन्ध होता है । जिनमें एक आदि गुण अधिक पाये जाते हैं, उन सदृशोंका बन्ध नहीं हुआ करता।
इस सूत्रमें जो तु शब्द है, वह दो प्रयोजनोंको सिद्ध करता है-व्यावृत्ति और वशिष्टय । अर्थात् वह प्रतिषेधकी तो व्यावृत्ति करता है, और बन्धकी विशेषताको दिखाता है।
भावार्थ-पहले दो सूत्रोंके द्वारा जो बन्धका प्रतिषेध किया गया है, उसका यह निषेध करता है, और बन्धका विशेषण बनकर बताता है कि, गुणवैषम्य होते हुए भी जो दो गुण अधिक हैं, उन सदृशोंका बंध हुआ करता है।
भाष्यम्-अत्राह-परमाणुषु स्कन्धेषु च ये स्पर्शादयो गुणास्ते किं व्यवस्थितास्तेषु आहोस्विव्यवस्थिता इति ? । अत्रोच्यते-अव्यवस्थिताः । कुतः ? परिणामात् । अत्राहद्वयोरपि बध्यमानयोर्गुणवत्त्वे सति कथं परिणामो भवतीति ? उच्यते
- अर्थ-परमाणुओंमें तथा स्कन्धोंमें जो स्पर्शादिक गुण रहते हैं, या पाये जाते हैं, वे व्यवस्थित हैं, अथवा अव्यवस्थित ? अर्थात् नित्य हैं या अनित्य ? उत्तर-वे सब अव्यवस्थित हैं । परमाणुओंमें पाये जानेवाले स्पर्शादिक और स्कन्धोंमें पाये जानेवाले स्पर्शादिक तथा शब्दादिक सभी अनवस्थित हैं। प्रश्न-ऐसा कैसे ? अर्थात् आपका यह कथन केवल प्रतिज्ञामात्र समझना चाहिये, अथवा युक्तिसिद्ध ? यदि युक्तिसिद्ध है, तो वह युक्ति क्या है ? उत्तरकारण यह है, कि पुद्गलपरमाणु अथवा स्कन्ध अपने द्रव्यत्वादि जातिस्वभावको न छोड़कर प्रतिक्षण परिणमन विशेषको प्राप्त हुआ ही करते हैं, और तदनुसार स्पर्शादिक सामान्य धर्मको न छोड़ते हुए भी वे स्पर्शादिकी उक्त विशेष अवस्थाओंको धारण किया ही करते हैं । इस परिणामकी दृष्टि से उन स्पर्शादि गुणोंको अथवा शब्दादिकको अनवस्थित ही कहा जा सकता है। प्रश्न-जब बध्यमान दोनों पुद्गलोंमें गुणवत्ता समान है, तब परिणाम किस तरह होता है ? अर्थात् जिन दो पुद्गलोंका स्निग्धत्व अथवा रूक्षत्वके कारण बंध होता है, उनकी गुणवत्ता जब समान है, उस अवस्थामें किसको परिणम्य और किसको परिणामक कहा जा सकता है ? कल्पना कीजिये, कि एक स्निग्ध परमाणुका दसरे रूक्ष परमाणुके साथ बन्ध हुआ। इनमेंसे कौन परिणमन करेगा और कौन करावेगा ? स्निग्ध परमाण रूक्षको अपने रूप परिणमा लेगा अथवा रूक्ष परमाणु स्निग्धको रूक्ष बना लेगा ? इस प्रश्नका उत्तर देनेके लिये ही आगेका सूत्र कहते हैं
१-एक ही बातको दो बार कहने में कोई विशेषता नहीं है, परन्तु विशेष अर्थ न रहते हुए भी षष्टयन्त और तृतायान्त इस तरह वाक्यके प्रयोग दो तरहसे हो सकते हैं, इस बातको दिखानेके लिये ही आचार्यने दो प्रकारसे एक बातको कहा है। २-निषेधका निषेध सद्भावका ज्ञापक होता है, अतएव यह भी बंधके अधिकारको सूचित करता है । ३-"निद्धस्स निद्धेण दुआधिएण, लुवखस्स लुक्खेण दुआधिएण। निद्धस्स लुवखेण उवेति बंधो जहण्णवजो विसमे समेवा ॥ (प्रज्ञा० गाथा २००) अथवा देखो गोम्मटसार-जीवकाण्ड गाथा-६१४ ।
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