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________________ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ पंचमोऽध्यायः अत्राह - सदृशग्रहणं किमपेक्षत इति । अत्रोच्यते-गुणवैषम्ये सदृशानां बन्धो भवतीति । अर्थ - स्निग्ध रूक्ष गुणोंकी समानता के द्वारा जो सदृश हैं, उनका बन्ध नहीं हुआ करता । यथा— तुल्य गुणस्निग्धका तुल्य गुणस्निग्धके साथ एवं तुल्य गुणरूक्षका तुल्य गुणरूक्ष के साथ बन्ध नहीं होता । २९० भावार्थ - यहाँ पर सदृशता क्रियाकृत समताकी अपेक्षासे नहीं, किन्तु गुणकृत समता के निमित्तसे समझनी चाहिये । तथा यह सामान्योपन्यास है, अतएव सभी समगुणवालों के पारस्परिक बन्धका निषेध समझना चाहिये । जिस प्रकार एक स्निग्ध गुणवाले के साथ एक स्निग्ध गुणवालेका बन्ध नहीं होता, उसी प्रकार दो स्निग्ध गुणवालेका दो स्निग्ध गुणवाले के साथ बन्ध नहीं होता, और तीन स्निग्ध गुणवालेका तीन स्निग्ध गुणवाले के साथ बंध नहीं होता । इसी तरह अनन्तगुण स्निध पर्यन्त सभी समान संख्यावालोंके विषय में समझना चाहिये । तथा यही क्रम रूक्षके विषय में भी घटित कर लेना चाहिये । प्रश्न- - इस सूत्र में गुणसाम्य और सदृश इस तरह दो शब्द का प्रयोग किया है । परन्तु जिनमें समान गुण होंगे, वे नियमसे सदृश होंगे ही, फिर व्यर्थ ही सूत्रमें सदृश शब्दका प्रयोग करनेकी क्या आवश्यकता है ? उत्तर - यहाँपर सदृश शब्दके प्रयोग करनेका दूसरा ही अभिप्राय है । वह इस बातको दिखाता है, कि गुणकृत वैषम्यके रहनेपर भी जो सदृश हैं, उनका परस्परमें बन्ध हुआ करता है । भाष्यम् – अत्राह - किमविशेषेण गुणवैषम्ये सदृशानां बन्धो भवतीति ? अत्रोच्यते । - अर्थ- प्र प्रश्न- - आपने कहा है, कि गुण वैषम्यके होनेपर सदृश पुगलका बन्ध होता है । सो यह अविशेषरूपसे होता ही है, या इसका कोई विशेष अपवाद है । अर्थात् — जहाँ जहाँ सदृशों में गुणवैषम्य पाया जाय, वहाँ वहाँ बन्ध हो ही जाय, ऐसा नियम है, अथवा कहीं बन्ध नहीं भी होता ? उत्तर - सभी सदृश पुद्गलोंका बन्ध नहीं हुआ करता । किनका होता है सो बतानेके लिये सूत्र कहते हैं- सूत्र - द्व्यधिकादिगुणानां तु ॥ ३५ ॥ भाष्यम् - - द्रयधिका दिगुणानां तु सदृशानां बन्धो भवति । तद्यथा - स्निग्धस्य द्विगुणाद्यधिकस्निग्धेन, द्विगुणाद्यधिकस्निग्धस्य स्निग्धेन । रूक्षस्यापि द्विगुणाद्यधिकरुक्षेण, द्विगुणाद्यधिकरूक्षस्य रूक्षण । एकादिगुणाधिकयोस्तु सदृशयोर्बन्धो न भवति । अत्र तुशब्दो व्यावृत्तिविशेषणार्थः प्रतिषेधं व्यावर्तयति बन्धं च विशेषयति ॥ अर्थ — जो सदृश पुद्गल दो अधिक गुणवाले हुआ करते हैं, उनका बन्ध हुआ करता है । यथा स्निग्धा दो गुण अधिक स्निग्ध के साथ, दो गुण अधिक स्निग्धका स्निग्धके साथ बन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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