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सूत्र ३२-३३ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
२८९ करते है । जिनमें पूरण और गलन पाया जाय, उनको ही पुद्गल कहते हैं। पूरकत्व-पूरणधर्मकी अपेक्षा संघात, और गलन धर्मकी अपेक्षा भेद हुआ करता है । इस प्रकारसे जब परिणति विशेष पैदा करनेवाला सर्वात्म संयोगरूप उनका बन्ध होता है, तभी उनका संघात कहा जाता है।
प्रश्न-पुद्गलोंके बन्धमें आपने उनके स्निग्धत्व और रूक्षत्व गुणको कारण बताया सो ठीक, परन्तु क्या यह एकान्त है, कि जहाँपर ये गुण होंगे, वहाँपर नियमसे बन्ध हो ही जायगा ? या इसमें भी कोई विशेषता है ? इसका उत्तर देनेके लिये आगेके सूत्र द्वारा विशेषताका प्रतिपादन करते हैं:
सूत्र-न जघन्यगुणानाम् ॥ ३३ ॥ भाष्यम्--जघन्यगुणस्निग्धानां जघन्यगुणरूक्षाणां च परस्परेण बन्धो न भवति ॥
अर्थ-जिनमें स्नेहका जघन्य गुण पाया जाता है, अथवा जो रूक्षके जघन्य गुणको धारण करनेवाले हैं उन पुद्गलोंका, परस्परमें बन्ध नहीं हुआ करता।
भावार्थ-जघन्य शब्दसे एक संख्या और गुण शब्दसे शक्तिका अंश लेना चाहिये। जो पुद्गल ऐसे हैं, कि जिनमें एक ही अंश स्नेहका अथवा रूक्षका पाया जाता है, उनका परस्परमें बन्ध नहीं हुआ करता । परस्परसे यहाँ मतलब सजातीयका है। किन्त आगे चलकर विसदृशका भी बन्ध होता है ऐसा कहेंगे । तदनुसार एक गुणवाले परमाणुका किसी भी स्निग्ध या रूक्षगुणवाले के साथ बन्ध नहीं हो सकता। अर्थात् एक स्नेहगुणवालेका न तो दो तीन चार आदि संख्यात अथवा असंख्यात या अनन्त गुण स्निग्ध पुद्गलके साथ ही बन्ध होगा और न ऐसे ही रूक्ष गुणवाले पुद्गलके साथ बंध होगा।
भाष्यम्--अत्राह-उक्तं भवता जघन्यगुणवर्जानां स्निग्धानां रूक्षेण रूक्षाणां च स्निग्धेन सह बन्धो भवतीति । अथ तुल्यगुणयोः किमत्यन्तप्रतिषेध इति ? अत्रोच्यते-न जघन्यगुणानामित्यधिकृत्येदमुच्यते
___ अर्थ-प्रश्न-जघन्य गुणवालको छोड़कर बाकी स्नेह गुणवाले पुद्गलोंका रूक्ष पुद्गलोंके साथ और इसी प्रकार जघन्यगुणके सिवाय शेष रूक्ष गुणवाले पुद्गलोंका स्निग्ध पुद्गलोंके साथ बन्ध
होता है, यह बात आपने कही है । सो क्या तुल्य गुणवालोंके बन्धका सर्वथा प्रतिषेध ही है ? . उत्तर-तुल्य गुणवाले स्निग्धाधिकरण और रुक्षाधिकरणके बन्धका एकान्तरूपसे निषेध ही है।
और यह निषेध “ न जघन्यगुणानाम् ” मूत्रके अधिकारसे ही सिद्ध है। इसी सम्बन्धको लेकर आगेका सूत्र कहते हैं
सूत्र-गुणसाम्ये सदृशानाम् ॥ ३४ ॥ भाष्यम्-गुणसाम्ये सति सदृशानां बन्धो न भवति। तद्यथा-तुल्यगुणस्निग्धस्य तुल्यगुणस्निग्धेन, तुल्यगुणरूक्षस्य तुल्यगुणरूक्षेणेति। . . . . . . . . . .
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