SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम [ पंचमोऽध्यायः इन तीन विकल्पोंके ही संयोगरूप हैं । यथा-स्यादस्तिनास्ति १, स्यादस्त्यवक्तव्यः २, स्यान्नास्त्यवक्तव्यः ३ स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्यः ४ । ___भावार्थ-द्रव्यार्थ और पर्यायार्थनयकी गौण मुख्य प्रवृत्तिके द्वारा प्रत्येक वस्तुमें अस्तित्व नास्तित्वादि धर्म अविरोध रूपसे सिद्ध हो सकते हैं । तदनुसार जीवादिक सभी द्रव्योंके सामान्य विशेष स्वरूपके विषयमें नयोंको विधिपूर्वक अर्पित या अनर्पित करके सब धर्मोंको यथासम्भव सिद्ध करलेना चाहिये । भाष्यम्-अत्राह-उक्तं भवता संघातभेदेभ्यः स्कन्धा उत्पद्यन्ते इति । तत् किं संयोगमात्रादेव संघातो भवति, आहोस्विदस्ति कश्चिद्विशेष इति ? अत्रोच्यते-सति संयोगे बद्धस्य संघातो भवतीति ॥ अत्राह-अथ कथं बन्धो भवतीति । अत्रीच्यते ____ अर्थ-प्रश्न-पहले आपने स्कन्धोंकी उत्पत्तिके कारणोंको बताते हुए कहा था, कि संघात भेद और संघातभेदके द्वारा स्कन्धोंकी उत्पत्ति हुआ करती है। उसमें यह समझमें नहीं आया, कि संघात किस तरह हुआ करता है । पुद्गलोंके संयोगमात्रसे ही हो जाया करता है अथवा उसमें कुछ विशेषता है ? उत्तर--संयोग होनेपर जो पुद्गल बद्ध हो जाते हैं जो कि एक क्षेत्रावगाहको प्राप्तकर एकत्वरूप परिणमन करानेवाले संश्लेष विशेषको प्राप्त हो जाते हैं, संघात उन्हींका हुआ करता है। संयोगमात्रसे संघात नहीं हुआ करता । प्रश्न-जिन पुदलोंका बन्ध हो जाता है, उन्हींका यदि संघात होता है, तो फिर यह भी बताना चाहिये कि वह बंध किस तरह हुआ करता है ? इसका उत्तर देनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं:-- सूत्र-स्निग्धरूक्षत्वादन्धः ॥ ३२ ॥ भाष्यम्-स्निग्धरूक्षयोः पुद्गलयोः स्पृष्टयोर्बन्धो भवतीति ॥ अत्राह-किमेष एकान्त इति, अत्रोच्यते अर्थ-जब स्निग्ध अथवा रूक्ष पुद्गल आपसमें स्पृष्ट होते हैं, तब उनका बन्धरूप परिणमन हुआ करता है। भावार्थ:-पहले पुद्गलके स्पर्शादिक गुणोंको बताते हुए स्पर्शके आठ भेद बतला चुके हैं। उन्हींमें एक स्नेह और एक रूक्ष भेद भी है । चिक्कणताको स्नेह और उसके विपरीत परिणामको रूक्ष कहते हैं । अंशोंके तारतम्यकी दृष्टि से इनके अनन्त भेद हो सकते हैं। एक गुणस्नेहसे लेकर संख्यात असंख्यात अनन्त और अनन्तानन्त गुणस्नेहवाले पुद्गल हुआ करते हैं। इसी प्रकार रूक्षगणके विषयमें भी समझना चाहिये । इन गुणों के कारण पुद्गल आपसमें मिलनेपर-केवल संयोगमात्र नहीं, किन्तु परस्परमें प्रतिघातरूप होनेपर बन्ध पर्यायको प्राप्त हुआ १ अध्याय ५ सूत्र २६ । २-यहाँपर गुणशब्दका अर्थ अविभागप्रतिच्छेद है। किसी भी शक्तिक सबसे छोटे अंशको अविभागप्रतिच्छेद कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy