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________________ सूत्र ३१ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । इस प्रकार उपर सप्तभंगीके पहले तीन विकल्प बताये हैं-सत् असत् और अवक्तव्य । ये तीनों ही विकल्प द्रव्य और पर्याय दोनों ही अपेक्षासे घटित हो सकते हैं। द्रव्य-नयका अभिप्राय रखनेवाले द्रव्यास्तिक और मातृकापदास्तिकका आश्रय लेकर तीनों विकल्पोंका स्वरूप ऊपर लिखे अनुसार समझना चाहिये । पर्यायका स्वरूप पहले कह चुके हैं, कि-" तद्भावः परिणामः ।" अर्थात् द्रव्यके-सत्के भवनको परिणाम कहते हैं । पर्यायके मूलभेद दो हैं-सहभावी और क्रमभावी । इनके उत्तरेभेद अनेक हैं। देव मनुष्य आदिक अथवा ज्ञानदर्शनादिक आत्माकी सद्भाव पर्याय हैं, शेष धर्मादिक द्रव्योंमें होनेवाली पर्यायोंको असद्भाव पर्याय कहते हैं। इसी प्रकार वर्तमान कालसम्बन्धी पर्यायोंको सद्भाव पर्याय और भूत भविष्यत कालसम्बन्धी पर्यायोंको असद्भाव पर्याय समझना चाहिये । आत्मादिक पदार्थ पर्यायोंके समूह रूप हैं। इनमेंसे कभी अनन्त स्वपर पर्याय स्वभाव द्रव्य सत्तारूपसे एक विवक्षित होता है, कभी चेतन अचेतनके भेदसे दो भेदरूप विवक्षित होता है, तो कभी बहु भेदरूप विवक्षित होता है, क्योंकि शक्ति अनन्त हैं। विवक्षित भंगकी अपेक्षा सत् और शेष भंगकी अपेक्षा असत् समझना चाहिये । अतएव उक्त तीनों विकल्पोंमेंसे पहले विकल्प सत्का स्वरूप पर्यायास्तिककी अपेक्षासे इस प्रकार है कि-एक रूपसे विवक्षित सद्भाव पर्यायके विषयमें या दो भेदरूपसे विवक्षित सद्भाव पर्यायोंके विषयमें अथवा बहु भेदरूपसे विवक्षित सद्भाव पर्यायोंके विषयमें आदिष्ट--अर्पित एकत्व विशिष्ट द्रव्य या द्वित्वविशिष्ट द्रव्य अथवा बहुत्व संख्या विशिष्ट द्रव्य सत् होता है। दूसरे विकल्प-असत्का स्वरूप असद्भाव पर्यायकी अपेक्षा इस प्रकार है-एक भेदरूपसे विवक्षित असद्भाव पर्यायके विषयमें या दो भेदरूपसे विवक्षित असद्भाव पर्यायोंके विषयमें अथवा बहु भेदरूपसे विवक्षित असद्भाव पर्यायोंके विषयमें आदिष्ट-अर्पित एकत्व विशिष्ट द्रव्यको या द्वित्व विशिष्ट द्रव्यको अथवा बहुत्व विशिष्ट द्रव्यको असत् समझना चाहिये । इसी प्रकार तीसरे अवक्तव्य विकल्पके सम्बन्धमें समझना चाहिये । यथा-जातिकृत एकत्वकी अपेक्षा उक्त सद्भावपर्याय और असद्भावपर्याय इन दोनोंके विषयमें, अथवा स्वपर पर्यायभेदकृत द्वित्वकी अपेक्षा उक्त दोनों पर्यायोंके विषयमें, यद्वा पर्याय विशेषकृत बहुत्वकी अपेक्षा उक्त उभय पर्यायोंके विषयमें आदिष्ट-अर्पित एकत्व विशिष्ट द्रव्यको या द्वित्व विशिष्ट द्रव्योंको अथवा बहुत्व विशिष्ट द्रव्योंको एक कालमें न सत् कह सकते हैं, और न असत् कह सकते हैं। इस प्रकार सप्तभंगीके यह पहले तीन विकल्पोंका स्वरूप है । यह सकलादेशकी अपेक्षासे है। शेष चार विकल्पोंको विकलादेशकी अपेक्षासे स्वयं समझ लेना चाहिये । क्योंकि वे १-"सकलादेशः प्रमाणाधीनः, एकगुणमुरवेनाशेषवस्तुकथनं सकलादेशः।” एक गुण अथवा पर्यायके द्वारा समस्त वस्तुके ग्रहण करनेको प्रमाण अथवा सकलादेश कहते हैं। और "विकलादेशो नयाधीनः।" अर्थात् अंशरूपसे बस्तुकें ग्रहण करनेको विकलादेश अथवा नय यद्वा देशादेश कहते हैं। अतएव सप्तभंगी दो प्रकारकी मानी है-प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी। वह भी तीन तीन प्रकारसे प्रवृत्त हुआ करती है-ज्ञानरूपसे, वचनरूपसे और अर्धरूपसे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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