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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्र
[ पंचमोऽध्यायः
और जो अधर्मास्तिकाय है, वह धर्मास्तिकाय नहीं हो सकता । क्योंकि ये परस्परमें व्यावृत्तस्वभावको रखते हैं । अथवा धर्मास्तिकायादिसे भिन्न और कुछ भी नहीं है, यह कहना भी अमातृकापद है । क्योंकि अमातृकापद व्यावृत्तिको प्रकट करता है । धर्मादिक सभी अस्तिकाय सामान्य विशेषरूप अनेक धर्मात्मक हैं, और इसी लिये वे कथंचित् अनपोहरूप तथा कथंचित् अपोहरूप हैं, और वे सभी मातृकापदास्तिक कहे जाते हैं ।
इस प्रकार द्रव्यास्तिक और मातृकापदास्तिक के द्वारा द्रव्यार्थिकनयका अभिप्राय बताया । अब क्रमानुसार पर्यायार्थ नयका आशय क्या है, सो बताते हैं:
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उत्पन्नास्तिक और पर्यायास्तिक ये दोनों ही पर्यायार्थ नयके आशयका अनुसरण करते हैं, यह पहले बता चुके हैं। पर्यायार्थका मूल ऋजुसूत्र है । ऋजुसूत्र नय वर्तमान क्षणमात्र ही धर्मादि द्रव्यको मानता है, उसकी दृष्टिमें भूत भविष्यत् असत् हैं । वर्तमान क्षण अनेक हैं । उनमें से जहाँ एककी विवक्षा हो, वहाँ एकत्वविशिष्ट उत्पन्नास्तिक सत् है, जहाँ दो की विवक्षा हो वहाँ द्वित्व विशिष्ट उत्पन्नास्तिक सत् है, और जहाँ तीन आदिकी विवक्षा हो, वहाँ बहुत्व विशिष्ट उत्पन्नास्तिक सत् है । इसके सिवाय भूत या भविष्यत् जो अनुत्पन्न द्रव्यास्तिक अथवा मातृकापदास्तिक हैं, वे सब असत् हैं । वे भी क्रमसे एकत्व संख्याविशिष्ट, द्वित्व संख्याविशिष्ट और बहुत्व संख्याविशिष्ट हैं, और वे सभी अनुत्पन्न असत् हैं ।
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इस उपर्युक्त कथनसे यह सूचित हो जाता है, कि धर्मादिक द्रव्य स्यात् सत् हैं, स्यात् असत् हैं, स्यात् नित्य हैं, स्यात् अनित्य हैं । यह सब द्रव्यार्थ और पर्यायार्थनयकी मुख्यता तथा गौणताकी विवक्षानुसार सिद्ध हो जाता है । जिस नयकी विवक्षा होती है, वह नय और उसका विषय सत् हुआ करता । परन्तु जब वही विवक्षित नहीं होता, तब असत् समझा जाता है । अतएव दोनों ही नय और उनके विषय कथंचित् सत् और कथंचित् असत् हैं ।
जिस समयमें सत् और असत् - अस्तिस्व और नास्तित्व दोनों धर्मोसे युक्त वस्तु है, यह बात तो विवक्षित हो, परन्तु उन दोनोंका क्रमसे वर्णन करना विवक्षित न हो, उस समय में उस वस्तुको न सत् कह सकते हैं, न असत् ही कह सकते हैं । उस समय सप्तभंगीका तीसरा विकल्प - अवक्तव्य प्रवृत्त होता है । उसकी अपेक्षासे वस्तु अवक्तव्य है ।
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१ - अनेकान्तवादको सूचित करनेवाला यह निपातशब्द हैं। 1 'अनेकान्ते च विद्यादौ स्यान्निपातः शुचे क्वचित् ॥ ( धनञ्जयनाममाला) २ -- " प्रश्नवशादेकस्मिन्वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभंगी । (तत्त्वार्थ राजवार्तिक) मूलभंग अस्तित्व धर्मकी अपेक्षा एक और उसके प्रतिपक्षी नास्तित्वधर्मकी अपेक्षा दूसरा तथा दोनों धर्मों का एक कालमें वर्णन न कर सकनेकी अपेक्षा तीसरा अवक्तव्य भंग प्रवृत्त होता है। इन तीनोंके चार संयोगी भंगों को मिलाकर सात भंग हो जाते हैं। किसी भी वस्तुका वर्णन इन सात भंगों के द्वारा ही हो सकता है । अर्थात वस्तु सप्तभंगका विषय है । वस्तु अनन्त धर्मात्मक है । उनमेंसे जब जो धर्म विवक्षित हो, उसके आश्रयसे उपस्थित प्रश्नके वशसे एक ही वस्तुमें अविरोधरूपरा विधिप्रतिषेधकी कल्पनाको सप्तभंगी कहते हैं । इसका विशेष वर्णन सप्तभंगी तरंगिणी आदि में देखना चाहिये ।
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