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________________ सूत्र ३१ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २८५. अतएव उत्पन्नको ही जो विनष्टरूप से ग्रहण करता है, पर्याय - भेद - विनाशलक्षण है, ऐसा मान कर ही जो वस्तुका व्यवहार करता है, उसको पर्यायास्तिक कहते हैं । I अत्र क्रमसे इनके अर्थपदोंको कहते हैं । - द्रव्यास्तिकका विषयभूत सत् तीन तरहसे कहा जा सकता है - एकत्व संख्या विशिष्ट द्रव्य, द्वित्व संख्या विशिष्ट द्रव्य, अथवा बहुत्व संख्या विशिष्ट द्रव्य । क्योंकि जब द्रव्यसे शुद्ध प्रकृतिमात्रको ही लेते हैं, तो वह एक ही है 1 अतएव एकत्व विशिष्ट कहा है । परन्तु यह बात ऊपर बता चुके है, कि अभिन्न द्रव्य व्यवहारका साधन नहीं हो सकता । व्यवहार-भेदके ही आश्रित है । भेदका कारण द्वित्वादि संख्या है। इसके लिये यदि यहाँ केवल द्वित्व संख्या ही दिखायी जाती, तो भी काम चल सकता था, परंतु यहाँ द्वित्व संख्याके साथ साथ बहुत्व संख्या भी दिखाई है, उसका कारण यह है, कि वचनत्रयके द्वारा जिसका प्रतिपादन हो जाय, उस द्रव्यसे फिर कोई भी सत् शेष नहीं रहता । द्रव्यार्थिकका विषय असन्नाम नहीं है । क्योंकि जो नाम है, वह सत्की अपेक्षासे ही होता है, और जो सत् है, उसका कोई न कोई नाम अवश्य होता है । संज्ञा और संज्ञी परस्पर में सापेक्ष हैं । उनमें से कोई भी एक दूसरेको छोड़कर नहीं रह सकता, 1 मातृकापदास्तिक के अर्थपद भी इसी तरहसे समझ लेने चाहिये । एकत्व विशिष्ट मातृका पद, द्वित्व विशिष्ट मातृका पद, और बहुत्व विशिष्ट मातृकापद सत् हैं, तथा एकत्व विशिष्ट अमातृकापद, द्वित्व विशिष्ट अमातृकापद और बहुत्व विशिष्ट अमातृकापद असत् हैं I भावार्थ – मातृकापदास्तिकका लक्षण धर्मास्तिकायादिकका उद्देश मात्र है। क्योंकि वह व्यवहारनयका अनुसरण करता है, और व्यवहारनय कहता है, कि संज्ञा लक्षण आदि भेदसे शून्य द्रव्यमात्र लौकिक जीवोंके लिये बुद्धिगोचर नहीं हो सकता । अतएव भेदका आश्रय लेना ही पड़ता है । द्रव्यास्तिकके वर्णनमें भी वह छूट नहीं जाता । द्रव्यमात्र ही सत् है, ऐसा कहते हुए एकत्वादि सङ्ख्याका वैशिष्ट्य भी बताना ही पड़ता है । अतएव भेदको मानकर धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकायका संज्ञा संख्या लक्षण प्रयोजन आदिकी विवक्षा दिखाते हुए वर्णन करना मातृकापद ही सत् है । इन अस्तिकायोंमेंसे जब एककी विवक्षा हो, तत्र एकत्व विशिष्ट मातृकापद सत् है, जब दोकी विवक्षा हो, तब द्वित्व . विशिष्ट मातृकापद सत् हैं, और जब तीन आदिकी विवक्षा हो, तब बहुत्व विशिष्ट मातृकापद सत् हैं, ऐसा समझना चाहिये । कोई भी वस्तुका धर्म प्रतिपक्ष भावको छोड़कर नहीं रह सकता, यह बात ऊपर बता चुके हैं । तदनुसार धर्मास्तिकायादिके भेदको विषय करनेवाले मातृकापदके विपक्षको अमातृकापद दिखाता है । वह कहता है, कि धर्मास्तिकाय है, इतना कहनेसे ही काम नहीं चलता, इसके साथ यह भी कहना चाहिये, कि जो धर्मास्तिकाय है, वह अधर्मास्तिकाय नहीं हो सकता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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