SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 309
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [पंचमोऽध्यायः जा सकता है । अतएव वस्तुको सप्रतिपक्षधर्मात्मक माना है, और इसीलिये उसके दो प्रकार भी किये हैं कि-अर्पितव्यावहारिक और अनर्पितव्यावहारिक । एक धर्मका त्याग दूसरे धर्मके त्यागको भी बताता है, तथा एक धर्मका ग्रहण दुसरे धर्मकी भी सत्ताका बोधक होता है। ऊपर दो धर्मोकी अपेक्षा है-सत् और नित्य । इनके दो धर्म प्रतिपक्षी हैं-असत् और अनित्य । इनमेंसे सत् चार प्रकारका है-द्रव्यास्तिक, मातृकापदास्तिक, उत्पन्नास्तिक, और पर्यायास्तिक । इनमेंसे पहले दोनों भेद द्रव्यास्तिक नयके विषय हैं, और अन्तके दोनों भेद पर्यायास्तिक नयके विषय हैं। जिसमें दूसरे स्वभावोंका साङ्कर्य नहीं पाया जाता, और जो न दूसरी समस्त विशेषताओंको ग्रहण ही करता है, ऐसे एक अभिन्न शुद्धप्रकृतिक संग्रह नयके विषयभत द्रव्यमात्रको ही जो अस्तिरूपसे मानता है, उसको द्रव्यास्तिक कहते हैं । अतएव द्रव्यास्तिकको शुद्धप्रकृतिक कहा जा सकता है। परन्तु यह नैगमनयके विषयको भी ग्रहण करता है, और नैगममें संग्रह व्यवहार दोनोंका प्रवेश है, अतएव उसको शुद्धाशुद्धप्रकृतिक भी कह सकते हैं। किंतु जो संग्रह नयका अभिप्राय है, उसको द्रव्यास्तिक और जो व्यवहारनयका अभिप्राय है, उसको मातृकापदास्तिक ग्रहण करता है । द्रव्यास्तिकके द्वारा प्रायः लोकव्यवहार सिद्ध नहीं हुआ करता। क्योंकि उसका विषय अभिन्न द्रव्य है । लोकव्यवहार प्रायः भेदके आश्रयसे ही हुआ करता है। इसी लिये प्रायः लोक-व्यवहारकी सिद्धि मातृकापदास्तिकके द्वारा ही हुआ करती है। धर्म अधर्म आकाश पुद्गल और जीव ये पाँचो ही अस्तिकाय द्रव्यत्वकी अपेक्षा समान हैं । तो भी इनके स्वभाव परस्परमें भिन्न हैं । एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप नहीं हो सकता। तथा भिन्न रहकर ही ये लोक-व्यवहारके साधक हैं । अभिन्न शुद्ध द्रव्य व्यवहार-साधनमें समर्थ नहीं हो सकती । अतएव मातृकापदास्तिक कुछ स्थल व्यवहारयोग्य विशेषताको प्रधानरूपसे ग्रहण करता है। जिस प्रकार वर्ण पद वाक्य प्रकरण आदिका जन्मस्थान मातृका है, उसी प्रकार समस्त सामान्य और विशेष पर्यायोंके आश्रय धर्मादिक अस्तिकाय हैं, जोकि व्यवहारसिद्धिमें मूलकारण हैं । अतएव उनको ही मातृका कहते हैं । व्यवहार योग्य होनेसे इन मातृकापदोंको ही जो अस्तिरूपसे मानता है, उसको मातकापदास्तिक कहते हैं। उत्पन्नास्तिक और पर्यायास्तिक दोनों पर्यायनयके भेद हैं, यह बात ऊपर कह चुके हैं। पर्यायनय भेदको ही प्रधान मानकर वस्तुका बोध और व्यवहार कराती है। ध्रौव्यसे अविशिष्ट रहते हुए भी उत्पाद और व्यय, भेद अथवा पर्यायके विषय हैं। उनमेंसे स्थूल अथवा सूक्ष्म सभी उत्पादोंको विषय करनेवाला उत्पन्नास्तिक है। कोई भी उत्पाद विना विनाशके नहीं हो सकता, न रह सकता है। दोनोंका परस्परमें अविनाभाव है । क्योंकि यह नियम है, कि जो उत्पत्तिमान् है, वह नियमसे विनश्वर भी है, अथवा जितने उत्पाद हैं, उतने ही विनाश भी हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy