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________________ सूत्र ३०-३१।] सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । अर्थ-अर्पित और अनर्पित अपेक्षाओंसे उन धर्मोकी-सत् और असत्की अथवा नित्यत्व अनित्यत्वकी सिद्धि होती है, अतएव उनके युगपत् एक वस्तुमें रहनेमें कोई विरोध नहीं है । निर्दिष्ट परिग्रहीत या विवक्षित धर्मको अर्पित कहते हैं, और उससे जो विपरीत है, उसको अनर्पित कहते हैं । उक्त धर्मोमेंसे एक समयमें एक विवक्षित रहता है, और दूसरा अविवक्षित रहता है, अतएव कोई विरोध न आकर वस्तु-तत्त्वकी सिद्धि होती है। सत् तीन प्रकारका बताया है-उत्पाद व्यय ध्रौव्य । नित्यके दो भेद हैं-अनाद्यनन्त नित्यता और अनादि सान्त नित्यता । ये तीनों ही प्रकारके सत् और दोनों ही प्रकारके नित्य, अर्पित और अनर्पितके द्वारा सिद्ध हुआ करते हैं। क्योंकि विवक्षा और अविवक्षा प्रयोजनके अधीन है । कभी तो प्रयोजनके वश उक्त धर्मोमेसे किसी भी एक धर्मकी विवक्षा होती है, और कभी प्रयोजन न रहनेके कारण उसीकी अविवक्षा हो जाती है। अतएव एक कालमें वस्त सदसदात्मक नित्यानित्यात्मक और भेदाभेदात्मक आदि सप्रतिपक्ष धर्मोंसे युक्त सिद्ध होती हैं । जिस समयमें सदसदात्मक है, उसी समयमें वह नित्यानित्यात्मक आदि विशेषणोंसे भी विशिष्ट है । जो सत् है, वह असत् आदि विकल्पोंसे शन्य नहीं है, और जो असत् है, वह सदादि विकल्पोंसे रहित नहीं है। क्योंकि वस्तुका स्वभाव ही सप्रतिपक्ष धर्मसे विशिष्ट है । प्रतिपक्षी धर्मसे शून्य सर्वथा माना जाय, तो मूल विवक्षित धर्मकी भी सिद्धि नहीं हो सकती है । परन्तु उन धर्मोंका व्यवहार विवक्षाधीन है। कभी किसी धर्मकी विवक्षा होती है, कभी नहीं होती । जब होती है, तब वही धर्म प्रधान हो जाता है, शेष धर्म गौण हो जाते हैं । प्रधान-विवक्षित धर्मके वाचक शब्दके द्वारा उस वस्तुका निरूपणादि व्यवहार हुआ करता है । उस समयमें गौण धर्मका व्यवहार नहीं हुआ करता । जब गौण धर्म विवक्षित होता है, तब वह प्रधान हो जाता है, और उसके सिवाय अन्य समस्त धर्म अविवक्षित हो जाते हैं। उस समयमें उस धर्मके वाचक शब्दके द्वारा वस्तुका व्यवहार हुआ करता है। प्रधानविवक्षित धर्मके सिवाय शेष सम्पूर्ण गौण धर्म गम्यमान हुआ करते हैं । किन्तु एक धर्मके द्वारा वस्तुका व्यवहार करते समय शेष धर्मोका अभाव नहीं माना जाता, न उनका अपलाप ही किय १-दूसरे व्यक्तिके लिये उसी समयमें वह गौण धर्म ही प्रधान हो सकता है। उदाहरण-तीन व्यक्ति एक समयमें •एक सोनेवालेकी दुकानपर पहुँचे । एक सोनेका घट लेनेके लिये, दूसरा मुकुट लेनेके लिये, तीसरा सुवर्ण लेनेके लिये। दुकानदारके पास एक सोनेका घट रक्खा हुआ था। इसको उसने जिस समय तोड़कर मुकुट बनाना शुरू किया, उसी समय तीनों ग्राहक उसकी दुकानपर पहुँचे । घट हूटने और मुकुट बननेकी अवस्थाको देखकर तीनोंके हृदयमें एक साथ तीन भाव पैदा हुए, शोक-मोह और माध्यस्थ्य । इन भावोंकी उत्पत्ति निर्हेतुक नहीं हो सकती। अतएव सिद्ध होता है, कि वस्तुमें युगपत् तीनों धर्म-उत्पाद व्यय ध्रौव्य पाये जाते हैं । अतएव भगवान् समन्तभद्र आचार्यने आप्तमीमांसामें कहा है कि-- "घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयं । शोकप्रमोहमाध्यस्थ्यं जमो याति सहेतुकम् ॥५५॥" तृ. प. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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