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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालाया
[पंचमोऽध्यायः
अर्थ-नित्य शब्दका अर्थ है, सत्के भाव-भवन-परिणमनका अव्यय-अविनाश । जो सत्के भावसे न नष्ट हुआ है और न होगा, उसको नित्य कहते हैं।
भावार्थ-नित्य शब्दकी सिद्धि पहले बता चुके हैं। इस सूत्रमें तत् शब्दसे सत् लिया है, और भाव शब्दसे परिणमन । यदि नित्यसे मतलब सर्वथा अविनाशका होता, तो तदव्ययं नित्यम् " ऐसा ही सूत्र कर दिया जाता । परन्तु भाव शब्दके प्रयोगसे मालूम होता है, कि परिणमनका अविनाश ही नित्य शब्दसे अभीष्ट है । इस कथनसे कूटस्थनित्यता अथवा सर्वथा अविकारिताका निराकरण हो जाता है । अथवा कथंचित् अनित्यात्मकता भी सिद्ध हो जाती है।
_अथवा भाव शब्दका अर्थ स्वात्मा भी होता है । वस्तुका जो भाव है-निजस्वरूप है, उसके न छोड़नेको नित्य कहते हैं । पर यह शुद्ध द्रव्यास्तिकनयका विषय है, जोकि संपूर्ण अवस्थाओंमें निर्विकाररूप है।
___ यहाँपर यह शंका हो सकती है, कि उत्पाद व्यय और ध्रौव्य ये परस्परमें विरुद्ध स्वभाव हैं। जो अनित्य है, उसीको नित्य अथवा जो नित्य है, उसीको अनित्य कैसे कहा जा सकता है ? परन्तु यह शंका ठीक नहीं है। क्योंकि ये धर्म परस्परमें विरुद्ध नहीं हैं । लोकव्यवहारमें भी यह बात देखी जाती है, कि जिसका एक अपेक्षासे सत् या नित्य कहकर व्यवहार करते हैं, तो उसीका दुसरी अपेक्षासे असत् अथवा अनित्य कहकर व्यवहार करते हैं। अथवा द्रव्यास्तिक और पर्यायास्तिकनयकी युक्तिसे भी यह बात सिद्ध है, कि ये धर्म-सत्त्व और असत्त्व अथवा नित्यत्व अनित्यत्व अपेक्षासे सिद्ध हैं। इसी बातको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं
सूत्र-अर्पितानर्पितसिद्धेः ॥ ३१ ॥ भाष्यम्--अर्पितानर्पितसिद्धः। सच्च त्रिविधमपि नित्यं चोभे अपि अर्पितानर्पितसिद्धः। आर्पितव्यावहारिकमर्पितव्यावहारिकं चेत्यर्थः। तत्र सच्चतुर्विधं, तद्यथा-व्यास्तिकं, मातृकापदास्तिकं, उत्पन्नास्तिकं, पर्यायास्तिकमिति । एषामर्थपदानि द्रव्यं वा द्रव्ये वा द्रव्याणि वा सत् । असन्नाम नास्त्येव द्रव्यास्तिकस्य । मातृकापदास्तिकस्यापि मातृकापदं वा मातृकापदे वा मातृकापदानि वा सत् । अमातृकापदं वा अमातृकापदे वा अमातृकापदानि वाऽसत् । उत्पन्नास्तिकस्य उत्पन्नं वा उत्पन्ने वा उत्पन्नानि वा सत् । अनुत्पन्नं वाऽनुत्पन्ने वाऽनुत्पन्नानि वाऽसत् । अर्पितेऽनुपनीते न वाच्यं सदित्यसदिति वा। पर्यायास्तिकस्य सद्भावपर्याये वा, सद्भावपर्याययोर्वा सद्भावपर्यायेषु वा आदिष्टं द्रव्यं वा, द्रव्ये वा, द्रव्याणि वा सत् । असद्भावपर्याये वा, असद्भावपर्याययोर्वा, असद्भावपर्यायेषु वा, आदिष्टं द्रव्यं वा, द्रव्ये वा, दन्याणि वाऽसत् । तदुभयपर्याये वा, तदुभयपर्याययोर्वा, तदुभयपर्यायेषु वा, आदिष्टं द्रव्यं वा, द्रव्ये वा, द्रव्याणि वा, न वाच्यं सदसदिति वा । देशादेशेन विकल्पयितव्यमिति ।
१“नेवे त्यप्"। (सिं० अ० ६ पाद ३ सूत्र १७) -म जासौ भावश्च तद्भावस्तस्याल्ययम् । अथवा ऐसा भी अर्थ होता है, कि अयो-मनं, विरुद्धोऽयो व्ययः, न व्ययोऽव्ययः। अर्थात् तद्भावके विरुद्ध गमनका निषेध ।
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