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________________ २८१ सूत्र २९-३० ।। सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । भी निश्चयसे नहीं बन सकते ॥ ३ ॥ विना उपादान कारणके वस्तुका उत्पाद नहीं हो सकता, और न वस्तुको सर्वथा तदवस्थ--ध्रौव्यस्वभाव माननेपरही वह बन सकता है। उत्पादादि विकृतिके एकान्त पक्षमें भी यही बात समझनी चाहिये । अतएव वस्तुको त्रयात्मक ही मानना चाहिये, क्योंकि ऐसा होनेपर ही उत्पादादिक हो सकते हैं ॥ ४ ॥ एक संसारी जीव सिद्ध पर्यायको धारण करता है, इसमें सिद्ध पर्यायका उत्पाद और संसार भावका व्यय समझना चाहिये, और जीवत्व दोनों अवस्थाओंमें रहा करता है, अतएव उसकी अपेक्षासे ध्रौव्य भी है । इस प्रकार जीवमें या सिद्ध अवस्थामें त्रयात्मकता सिद्ध है। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तुके विषयमें त्रयात्मकताको घटित कर लेना चाहिये ॥ ५ ॥ __ भाष्यम्-उत्पादव्ययौ धौव्यं चैतत्रितययुक्तं सतो लक्षणम् । अथवा युक्तं समाहितं त्रिस्वभावं सत् । यदुत्पद्यते यद्व्येति यच्च ध्रुवं तत्सत्, अतोऽन्यदसदिति ॥ _ अर्थ-उत्पाद व्यय और ध्रौव्य इन तीनोंसे युक्त रहना ही सत्का लक्षण है । अथवा युक्त शब्दका अर्थ समाहित-समुदित करना चाहिये । अर्थात् सत्का लक्षण त्रिस्वभावता ही है । जो उत्पन्न होता है, और जो विलीन होता है, तथा जो ध्रुव-सदा स्थिर रहा करता है, उसको सत् कहते हैं । यही सत्का लक्षण है । इस स्वभावसे जो रहित है, उसको असत् समझना चाहिये। भाष्यम्-अत्राह-गृह्णीमस्तावदेवलक्षणं सदिति; इदं तु वाच्यं तत् किं नित्यमाहोस्विदनित्यम् ? अत्रोच्यते ___ अर्थ--प्रश्न--यहाँपर सतका लक्षण जो बताया है, सो तो समझे, परन्तु यह तो कहिये कि वह सत् नित्य है, अथवा अनित्य ? भावार्थ-जब कि युगपत् तीनों धर्मोको सत् का लक्षण बता दिया, फिर नित्यानित्यात्मकताके लिये प्रश्न शेष नहीं रहता । परन्तु पूछनेवालेका आशय यह है, कि पहले द्रव्योंके तीन सामान्य स्वरूप बताये हैं-नित्य अवस्थित और अरूप, और यहाँपर प्रत्येक द्रव्यके उत्पाद व्यय ध्रौव्य ये तीन स्वरूप बताये हैं। तथा देखनेमें आता है, कि कोई द्रव्यसत् तो नित्य है, जैसे कि आकाश, और कोई सत् अनित्य होते हैं, जैसे कि घटादिक । अतएव सन्देह होता है, कि सत्को कैसा समझा जाय, नित्य अथवा अनित्य ? यदि नित्यानित्यात्मक माना जाय, तो पहले जो नित्यस्वरूप कहा है, उसका क्या अर्थ है ? उत्तर सूत्र-तद्भावाव्ययं नित्यम् ॥ ३०॥ . भाष्यम्-यत् सतो भावान्न व्योति न व्येष्यति तन्नित्यमिति ॥ १--हरिभद्रसूरिकी वृत्तिमें जो भाष्य पाया जाता है, उसके अनुसार यहाँ तक अर्थ किया गया है। २--सिद्धसेनगाको बृत्तिमें जिस भाष्यकी व्याख्या की गई है, वह इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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