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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ पंचमोऽध्यायः
नानि नियमा" इति आगमवचनं वचनमात्रम् । एवमेकान्ताऽधौव्येऽपि सर्वथातदभावापत्तेःतत्त्वतोऽहेतुकत्वमेवावस्थान्तरमिति सर्वदा तद्भावाभावप्रसङ्गः अहेतुकत्वाविशेषात् । न हेतु स्वभावतयोर्ध्व तद्भावः तत्स्वभावतयैकान्तेन धौव्यसिद्धेः । यदा हि हेतोरेवासौस्वभावो यत्तदनन्तरं तद्भावस्तदा ध्रुवोऽन्वयस्तस्यव तथाभवनात् । एवं च तुलोन्नामावनामवद्धतु. फलयोयुगपद्व्ययोत्पादसिद्धिरन्यथा तत्तद्यतिरिक्ततरविकल्पाभ्यामयोगात् । तन्न। मनुष्या देवरवमित्यायातं मार्गवैफल्यमागमस्येति। एवंसम्यग्दृष्टिःसम्यक्संकल्पः सम्यग्वाक सम्यमार्गः सम्यगार्जव सम्यग्व्यायामः सम्यकस्मृतिः सम्यक्समाधिरिति वाग्वैयर्थ्यम् । एवं घट व्ययवत्या मृषाकपालोत्पादभावात् उत्पादव्ययधोव्ययुक्तं सदिति।एकान्तध्रौव्ये तत्तथैकस्वभाव तयावस्थाभेदानुपपत्तेः। समान पूर्वेण । एवमेतद्व्यवहारतः तथा मनुष्यादिस्थितिद्रव्यमधिकृत्यदर्शितम् निश्चयतस्तु प्रतिसमयमुत्पादादिमत्तथा भेदसिद्धेः अन्यथातदयोगात् यथाहः
सर्वव्यक्तिषु नियतं क्षणे क्षणेऽन्यत्वमथ च न विशेषः । सत्योश्चित्यपचित्योराकृतिजातिव्यवस्थानात् ॥१॥ नरकादिगतिविभेदो भेदः संसारमोक्षयोश्चैव । हिंसादिस्तद्धेतुः सम्यक्त्वादिश्च मुख्य इति॥२॥ उत्पादादियुते खलु वस्तुन्येतदुपपद्यते सवम् । तद्रहिते तदभावात् सर्वमपि न युज्यते नीत्या ॥३॥ निरुपादानो न भवत्युत्पादो नापि तादवस्थ्येऽस्य । तद्विक्रिययाऽपि तथा त्रितययुतेऽस्मिन् भवत्येषः ॥४॥ सिद्धत्वेनोत्पादो व्ययोऽस्य संसारभावतो शेयः।
जीवत्वेन धौव्यं त्रितययुतं सर्वभेवं तु ॥५॥ अर्थ--सत्का लक्षण उत्पाद व्यय और प्रौव्य है । अर्थात् जिसमें ये तीनों बातें पाई जॉय, उसको सत् समझना चाहिये । जैसा कि देखनेमें भी आता है, कि जिस आत्माका मनु. ध्यत्वकी अपेक्षासे व्यय होता है, उसीका देवत्व आदि पर्यायकी अपेक्षासे उत्पाद हुआ करता है। इससे सिद्ध है, कि प्रत्येक वस्तुमें व्यय उत्पाद और ध्रौव्य हर समय पाया जाता है । आत्मत्वका ध्रौव्य मनुष्यत्वका व्यय और देवत्वका उत्पाद तीनोंका समय एक ही है। अतएव सत्का लक्षण ही उत्पाद व्यय और ध्रौव्य है। यदि आत्मामें एकान्तरूपसे ध्रौव्य ही माना जायगा तो, जो उसका स्वभाव है, उस एक स्वभावमें ही वह सदा स्थित रह सकता है, उसकी अवस्थामें भेद नहीं हो सकता, और अवस्थामें भेद हुए विना संसार और मोक्षका भेद भी नहीं बन सकता। यदि इस भेदको कल्पित माना जायगा, तो जीवको निःस्वभाव ही कहना पड़ेगा। क्योंकि संसार और मोक्ष ये जीवके ही तो स्वभाव हैं। जब इन स्वभावोंको या इनके भेदको कल्पित कहा जायगा तो, स्वभाववान्-जीवको भी कल्पित
१-यह भाष्यका व्याख्यान श्रीहरिभद्रसूरिकी वृत्तिमें है, सिद्धसेनगर्णाकी व्याख्यामें नहीं ! क्योंकि इस सूत्रके भाष्यका पाठ दो तरहसे पाया जाता है । इस भाष्यका कुछ पाठ सिद्धसेनकी वृत्तिमें भी मिलता है, तथा भाष्यके आदि वाक्यके पाठमें कुछ कुछ अंतर भी मिलते हैं, परन्तु उसके अर्थमें कोई अन्तर नहीं है।
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