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________________ सूत्र २९ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २७९ निःस्वभाव ही कहना पड़ेगा । जीवके निःस्वभाव माननेपर उसकी उपलब्धिका भी अभाव मानना पड़ेगा । यदि जीवको सस्वभाव मानोगे तो, एकान्तरूपसे उसका ध्रौव्य स्वभाव ही नहीं बन सकता । क्योंकि जीव ही तो अपने स्वभावके अनुसार तत्तत् अवस्थारूप हुआ करता हैसंसार और मोक्षरूप परिणत हुआ करता है। उस उस स्वभावके द्वारा जीवकी उपलब्धि होनेमें कोई विरोध नहीं है, क्योंकि उस उस प्रकारसे उपलब्धिका होना सिद्ध है। यदि उसको भ्रान्त कहा जाय, तो इसके कोई प्रमाण नहीं है । योगिज्ञानके प्रमाण माननेपर तो जीवकी अवस्थाका यह भेद भी अभ्रान्त ही मानना पड़ेगा। अतएव वह अवस्थाका मेद अभ्रान्त ही सिद्ध होता है, और इसी प्रकार मानना चाहिये । अन्यथा मनुष्य आदि पर्यायोंसे देवत्व आदि पर्यायका धारण नहीं बन सकता, और इसी लिये यम नियमादिका पालन करना भी निरर्थक ही ठहरता है, और इनके निरर्थक सिद्ध होनेपर आगमके ये वचन भी वचनमात्र ही ठहरते हैं। व्यर्थ ही सिद्ध होते है कि-"अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः।" "शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि नियमाः" । अर्थात् अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इनको यम कहते हैं, और शौच संतोष तप स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान इनको नियम कहते हैं। यदि वस्तु ध्रौव्य स्वरूप ही है, ऐसा माना जाय तो, आत्माकी अवस्थासे अवस्थान्तर तो हो ही नहीं सकती, फिर इन यम नियमरूप कारणोंका उल्लेख किस लिये है ? अतएव सिद्ध है, कि आत्मा ध्रौव्यस्वरूप ही नहीं है । पर्यायस्वरूप-उत्पाद व्ययात्मक भी है । अतएव देव मनुष्य सिद्ध संसारी आदि अवस्थाओंका होना भी कल्पित नहीं है, प्रमाणतः सिद्ध है। इसी प्रकार एकान्ततः ध्रौव्यका यदि अभाव माना जायगा-केवल ध्रौव्य रहित उत्पाद व्ययात्मक ही सत् है, ऐसा माना जाय, तो सर्वथा सत्के अभावका ही प्रसङ्ग आता है, और तत्त्वतः एक अवस्थासे दूसरी अवस्थाका होना निर्हेतुक ही ठहरता है, अर्थात् ध्रौव्य स्वभावके विना सत्के अभाव और असत्की उत्पत्तिका प्रसङ्ग आता है । अथवा सर्वदा तद्भाव और अभावका ही प्रसन्न आता है, क्योंकि निर्हेतुकता दोनों ही जगह समान है। हेतुस्वभावताके कारण यदि मनुष्यसे देवत्वादिका होना माना जाय, तो वह भी ठीक नहीं है। क्योंकि हेत स्वभाव माननेपर एकान्ततः ध्रौव्यकी सिद्धि हो जाती है । एकके अनन्तर दुसरे भावके होनेका स्वभाव जब हेतुपूर्वक मान लिया, तो अन्वय भी ध्रुव ही सिद्ध हुआ। क्योंकि वही तो उत्तर पर्यायरूप परिणत हुआ करता है, इस कथनसे व्यय और उत्पादकी भी युगपत् सिद्धि होती है। जिस प्रकार लराजका उन्नाम और अवनाम एक साथ ही हुआ करता है-एक तरफसे तराजूकी डंडी निस समय ऊँची होती है, उसी समय दूसरी तरफसे वह नीची भी होती है। एक तरफसे जब नीची हेती, उसी समय दूसरी तरफसे ऊँची भी हुआ ही करती है। इसी प्रकार व्यय और उत्पादके १-योगदर्शन । क्योंकि ये दोनों सूत्र योगदर्शनके ही हैं। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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