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________________ सूत्र २७-२८-२९ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २७७ भावार्थ-जो चक्षुरिन्द्रियके विषय हो सकते हैं, उनको चाक्षुष कहते हैं। जो जो भेद और संघातसे उत्पन्न होते हैं, वे सब चाक्षुष ही होते हैं, ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि अनन्तानन्त परमाणुओंके संयोगविशेषसे बद्ध होकर बननेवाले ऐसे अचाक्षुष स्कन्ध भी हुआ करते हैं, जिनकी कि उत्पत्ति भेद और संघात दोनोंसे ही हुआ करती है । अतएव नियम यह है, कि स्वतःही परिणमन विशेषके द्वारा चाक्षुषत्वरूप परिमणमन करनेवाले जो बादर स्कन्ध हैं, वे भेदसंघातसे ही उत्पन्न होते हैं। क्योंकि सक्ष्मरूप परिणत अचाक्षुष स्कन्धमेंसे जब कुछ परमाणु भिन्न होकर निकल जाते हैं, और कुछ नवीन आकर मिलते हैं, तभी परिणति विशेषके द्वारा वह सूक्ष्मतासे उपरत होकर स्थूलताको धारण किया करता है । बन्धनकी विशेषता स्निग्ध रूक्ष गुणके अविभागप्रतिच्छेदोंके तारतम्यके अनुसार हुआ करती है। जैसा कि आगे चलकर बताया जायगा। भाष्यम्--अत्राह--धर्मादीनि सन्तीति कथं गृह्यत इति ? अत्रोच्यते--लक्षणतः। किञ्च सतो लक्षणमिति ? अत्रोच्यते अर्थ-प्रश्न-पहले आपने धर्मादिक द्रव्योंका उल्लेख किया है, और उनका उपकार बताकर पुद्गलके भेद तथा स्कन्धोंकी उत्पत्तिके कारण भी बताये हैं । परन्तु अभीतक यह नहीं मालूम हुआ, कि उनकी सत्ताका ग्रहण कैसे हो? अर्थात्-धर्मादिक द्रव्य हैं, यह कैसे मालूम हो ? अथवा प्रत्येक द्रव्यका उपकार बताकर विशेष लक्षण तो बताया, परन्तु अभीतक सब द्रव्योंमें व्याप्त होकर रहनेवाला सामान्य लक्षण नहीं बताया, सो कहिये कि वह क्या है ? यद्वा धर्मादिक द्रव्य सत्तामात्र हैं ? या विकारमात्र हैं ? अथवा उभयरूप हैं ? मतलब यह कि धर्मादिक द्रव्योंका सामान्य सत् स्वरूप कैसे मालूम हो ? उत्तर-लक्षणके द्वारा उसका परिज्ञान हो सकता है। प्रश्न-यदि यही बात है। तो उस लक्षण को ही काहये कि जिसके द्वारा सामान्य सत् स्वरूपका बोध हो सकता हो । अर्थात् द्रव्यमात्रमें व्यापक सामान्य सत्का बोधक लक्षण क्या है, सो ही कहिये । उत्तर सूत्र-उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ॥ २९ ॥ भाष्यम्-उत्पादव्ययौ धौव्यं च सतो लक्षणम् । यदिह मनुष्यत्वादिना पर्यायेण व्ययत ,आत्मनो देवत्वादिना पर्यायेणोत्पादः एकान्तधौव्ये आत्मनि तत्तथैकस्वभावतयाऽवस्थाभेदानुपपत्तेः। एवं च संसारापवर्गभेदाभावः । कल्पितत्वेऽस्य निःस्वभावतयानुपलब्धिप्रसङ्गात् । सस्वभावत्वेत्वेकान्तधौव्याभावस्तस्यैव तथा भवनादिति । तत्तत्स्वभावतयाविरोधाभावात्तथोपलब्धिसिद्धेः । तद्भ्रान्तत्वे प्रमाणाभावः । योगिज्ञानप्रमाणाभ्युपगमे त्वभ्रान्तस्तदवस्थाभेदः । इत्थं चैतत् । अन्यथा न मनुष्यादेर्देवत्वादीति । एवं यमादिपालनानर्थक्यम् । एवं च सति “अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः" "शौचसंतोषतपास्वाध्यायेश्वरप्रणिधा १ चक्षुष इमे चाक्षुषाः । “ तस्येद " मित्य ( पाणिनीय अ० ४ पाद ३ सूत्र १२०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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