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________________ २७६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ पञ्चमोऽध्यायः और भेद दोनोंके मिल जानेसे - संयुक्त कारण के द्वारा द्विप्रदेशादिक स्कन्धोंकी उत्पत्ति हुआ करती है। क्योंकि कभी कभी ऐसा भी होता है, कि एक तरफसे भेद होता है, और उसी समय में दूसरी तरफसे संघात भी होता है इस तरह एक ही समय में दोनों कारणोंके मिल जानेसे जो स्कंध बनते हैं, वे संघात भेद भिश्वकारणजन्य कहे जाते हैं । भाष्यम् - अत्राह - अथ परमाणुः कथमुत्पद्यते इति । अत्रोच्यते अर्थ - प्रश्न- आपने स्कन्धों की उत्पत्ति किस तरह होती है, सो बताई परन्तु परमाणु के विषय में अभीतक कुछ भी नहीं कहा । अतएव कहिये कि उनकी उत्पति किस तरहसे होती है ? जिन कारणोंसे स्कन्धों की उत्पत्ति बताई, उन्हीं कारणोंसे परमाणुओंकी भी उत्पत्ति होती है, अथवा किसी अन्य प्रकारसे होती है ? उत्तर सूत्र - भेदादणुः ॥ २७ ॥ भाष्यम् - भेदादेव परमाणुरुत्पद्यते, न सङ्घातादिति ॥ अर्थ-स्कन्धों की उत्पत्तिके लिये तीन कारण जो बताये हैं, उनमेंसे परमाणुकी उत्पत्ति भेदसे ही होती है, न कि सङ्घातसे । 1 भावार्थ – पहले परमाणुको कारणरूप ही कहा है । परन्तु वह कथन द्रव्यास्तिकaat अपेक्षा है । पर्यायनयकी अपेक्षासे वह कार्यरूप भी होता है । क्योंकि उसकी द्वय - कादिकसे भेद होकर उत्पत्ति भी होती है । अतएव इसमें कोई भी पूर्वापर विरोध न समझना चाहिये । जब द्वणुकका भेद होकर दोनों परमाणु जुदे जुदे होते हैं, तब पहली अवस्था नष्ट होती है, और परमाणुरूप दूसरी अवस्था प्रकट होती है । उस अवस्थान्तरको किसीन किसी कारणसे जन्य अवश्य ही मानना पड़ेगा, उसका कारण भेद ही है । नियमरूप अर्थ पृथक् सूत्र करनेसे ही सिद्ध होता है । “ संघातभेदेभ्य उत्पद्यन्ते " इस सूत्र में स्कन्धों की उत्पत्तिके जो तीन कारण बताये, सो ठीक, परन्तु स्कन्ध दो प्रकारके होते हैं - चाक्षुष और अचाक्षुष । दोनों ही प्रकार के स्कन्धों की कारणता समान है, अथवा उसमें कुछ अन्तर है, इस बात को स्पष्ट करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं: सूत्र - भेदसङ्घाताभ्यां चाक्षुषाः ॥ २८ ॥ भाष्यम् - भेदसघाताम्यां चाक्षुषाः स्कन्धा उत्पद्यन्ते । अचाक्षुषास्तु यथोक्तात् सङ्घातात् भेदात् सङ्घातभेदाच्चेति ॥ अर्थ – दो प्रकारके स्कन्धों मेंसे जो चाक्षुष हैं, वे भेद और संघात दोनोंसे निष्पन्न होते हैं । बाकी जो अचाक्षुष हैं, वे पूर्वोक्त तीनों ही कारणोंसे उत्पन्न होते हैं- संघातसे होते, भेद होते, और संघातभेद के मिश्र से भी होते हैं । 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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